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वार्षिक मूल्य ४)
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विश्व तत्त्व-प्रकाशक
अने
वर्ष
किरण १०-११
* ॐ अर्हम् *
नाका
नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । | परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
वस्तु तत्त्व-संघोतक
वीर सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा जिला सहारनपुर चैत्र वैशाख शुक्ल, वीरनिवारण सं० २४७३, विक्रम सं० २००४
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समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने
युक्त्यनुशासन
इस किरणका मूल्य IIiy
मार्च, अप्रैल १९४७
न शास्त्र - शिष्यादि - विधि-व्यवस्था विकल्पबुद्धिर्वितथाऽखिला चेत् । तत्त्व-तत्त्वादि- विकल्प- मोहे निमज्जतां वीत-विकल्प-धीः का ? ||१७||
'(चित्तोंके प्रतिक्षण भंगुर अथवा निरन्वय-विनष्ट होने पर) शास्ता और शिष्यादिके स्वभावस्वरूपकी (भी) कोई व्यवस्था नहीं बनती – क्योंकि तब तत्त्वदर्शन, परानुग्रहको लेकर तत्त्व - प्रतिपादनकी इच्छा और तत्त्वप्रतिपादन, इन सब कालोंमें रहनेवाले किसी एक शासक ( उपदेष्टा ) का अस्तित्व नहीं बन सकता। और न ऐसे किसी एक शिष्यका ही अस्तित्व घटित हो सकता है जो कि शासन-श्रवण (उपदेश सुनने की इच्छा और शासनकं श्रवण, ग्रहण, धारण तथा अभ्यमनादि कालों में व्यापक हो । 'यह शास्ता है और मैं शिष्य हूँ' ऐसी प्रतिपत्ति भी किसीके नहीं बन सकती । और इसलिये बुद्ध-सुगतको
शास्त माना गया है और उनके शिष्योंकी जो व्यवस्था की गई है वह स्थिर नहीं रह सकती । इसी तरह ('आदि' शब्दसे) स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र और पौत्र - पितामह आदि की भी कोई विधि-व्यवस्था नहीं बैठ सकती, सारा लोक-व्यवहार लुप्त हो जाता अथवा मिथ्या ठहरता है ।'
' (यदि बौद्धोंकी ओरसे यह कहा जाय कि बाह्य तथा आभ्यन्तररूपसे प्रतिक्षण स्वलक्षणों( स्वपरमाणुओं) के विनश्वर होनेपर परमार्थसे तो मातृघानी आदि तथा शास्ता-शिप्यादिकी विधि