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अनेकान्त
[ वर्ष ८
द्वैतवादि-बौद्धों) का कहना है उनका सर्वथा अवाच्य-तत्त्व इससे वाच्य होजाता है ! जो इतना भी नहीं समझते और यही कहते हैं कि वच्य नहीं होता उनसे क्या बात की जाय ? -- उनके साथ तो मौनावलम्बन ही श्रेष्ठ है।'
अशासदजांसि वचांसि शास्ता शिष्याश्च शिष्टा वचनैर्न ते तैः ॥
अहो इदं दुर्गतमं तमोऽन्यत् त्वया विना श्रायसमायें ! कि तत् ॥२१॥ 'शास्ता–बुद्धदेवने ही (यथार्थदर्शनादि गुणोंसे युक्त होने कारण) अनवद्य वचनोंकी शिक्षा दी, परन्तु उन वचनोंके द्वारा उनके वे शिष्य शिक्षित नहीं हुए !' यह कथन (बौद्धोंका) अहो दूसरा दुर्गतम अन्धकार है-अतीव दुष्पार महामोह है !! क्योंकि गुणवान शाम्ताके होनेपर प्रतिपत्तियोग्य प्रतिपाद्योंशिष्योंके लिये सत्य-वचनोंके द्वारा ही तत्त्वानुशासनका होना प्रसिद्ध है। बौद्धोंके यहाँ बुद्धदेवके शाम्ता प्रसिद्ध होनेपर भी, बुद्धदेवके वचनोंको सत्यरूपमें स्वीकार करनेपर भी और (बुद्ध-प्रवचन सुनने के लिये) प्रणिहितमन (दत्तावधान) शिष्योंक मौजूद होते हुए भी वे शिष्य उन वचनोंसे शिक्षित नहीं हुए, यह कथन बौद्धोंका कैसे अमोह कहा जासकता है ?-नहीं कहा जासकता, और इस लिये बौद्धोंका यह दर्शन (सिद्धान्त) परीक्षावानोंके लिये उपहामास्पद जान पड़ता है।
(यदि यह कहा जाय कि इस शासनमें संवृतिसे-व्यवहारसे-शास्ता, शिप्य, शासन तथा शासनके उपायभूत वचनोंका सद्भाव स्वीकार किया जानेसे और परमार्थसे संवेदनाद्वैतकं निःश्रेयस-लक्षण कीनिर्वाणरूपकी-प्रसिद्धि होनसे यह दर्शन उपहासास्पद नहीं है, तो यह कहना भी ठीक हे आर्य-वीरजिन ! आपके बिना-आप जैसे स्याद्वादनायक शाम्ताके अभावम निःश्रेयस (कल्याण अथवा निर्वाण) बनता कौनसा है; जिससे संवेदनाद्वैतको निःश्रेयसरूप कहा जाय ?–सर्वथा एकान्त-वादका
आश्रय लेनेवाले शास्ताके द्वारा कुछ भी सम्भव नहीं है, ऐमा प्रमाणसे परीक्षा किये जानेपर जाना जाता है । सर्वथा एकान्तवादमें संवृति और परमार्थ ऐसे दो रूपसे कथन ही नहीं बनता और दो रूपसं कथनमें सर्वथा एकान्तवाद अथवा स्याद्वादमत-विरोध स्थिर नहीं रहता।'
प्रत्यक्षबुद्धिः क्रमते न यत्र तल्लिङ्ग-गम्यं न तदर्थ-लिङ्गम् ।
वाचो न वा तद्विपयेण योगः का तद्गतिः ? कष्टमशृण्वतां ते॥२२॥ 'जिस (संवेदनाद्वैत) तत्त्वम प्रत्यक्षवुद्धि प्रवृत्त नहीं होती-प्रत्यक्षतः किमीके जिसका तद्प निश्चय बनता-उसे यदि (स्वग-प्रापणशक्ति आदिकी तरह) लिङ्गगम्य माना जाय तो उसमें अर्थरूप लिङ्ग सम्भव नहीं होसकता; क्योंकि वह स्वभावलिङ्ग उस तत्त्वकी तरह प्रत्यक्ष-बुद्धिसे अतिक्रान्त है, उसे लिङ्गान्तरसे गम्य माननेपर अनवम्था दोष आता है तथा कार्यलिङ्गका मंभव माननेपर द्रुतताका प्रसङ्ग आता है और (परार्थानुमानरूप) वचनका उसके संवेदनाद्वैतरूप विषयके साथ योग नहीं बैठता-परम्परासे भी सम्बन्ध नहीं बनता, उस संवेदनाद्वैततत्त्वकी क्या गति है ?—प्रत्यक्षा, लैङ्गिकी और शाब्दिकी कोई भी गति न होने से उसकी प्रतिपत्ति (बोधगम्यता) नहीं बनती, वह किसीके द्वारा जाना नहीं जासकता । अतः (हे वीरजिन !) आपको न सुननेवालोंका-आपके स्याद्वाद शासनपर ध्यान न देनेवाले बौद्धोंका-संवेदनाद्वैत दशन कष्टरूप है।'