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किरण १०-११ ]
समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने
'यदि (निःसाधना सिद्धिका आश्रय लेकर) विज्ञानमात्र तत्त्वको योगिगम्य कहा जाय - यह बतलाया जाय कि साध्य के विज्ञानमात्रात्मकपना होनेपर साधनका साध्यतत्त्वके साथ अनुषङ्ग है - वह भी साध्यकी ही कोटि में स्थित है - इसलिये समाधि अवस्था में योगीको प्रतिभासमान होने वाला जो संवेदनाद्वैत है वही तत्त्व है; क्योंकि स्वरूपकी स्वतः गति (ज्ञप्ति) होती है- उसे अपने आपसे ही जाना जाता है तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि यह बात परवादियोंको सिद्ध अथवा उनके द्वारा मान्य नहीं है- जो किसी योगी के गम्य हो वह परवादियोंके द्वारा मान्य ही हो ऐसी कोई बात भी नहीं है, यह तो अपनी घरेलू मान्यता ठहरी । अतः निःसाधना सिद्धिका आश्रय लेनेपर परवादियोंका विज्ञानमात्र अथवा संवेदनाद्वैत तत्त्वका प्रत्यय (बोध) नहीं कराया जासकता ।
तत्त्वं विशुद्ध सकलैर्विकल्पविश्वाऽभिलापाऽऽस्पदतामतीतम् ।
न स्वस्य वेद्य ं न च तन्निगद्यं सुपुप्त्यवस्थं भवदुक्ति-बाह्यम् ॥१९॥
'जो (विज्ञानाऽद्वैत) तत्व सकल विकल्पोंसे विशुद्ध (शून्य) है - कार्य-कारण, ग्राह्य-ग्राहक, वास्यवासक, साध्य-साधन, बाध्य बाधक, वाच्य वाचक भाव आदि कोई भी प्रकारका विकल्प जिसमें नहीं हैवह स्वसंवेद्य नहीं होमकता; क्योंकि संवेदनावस्था में योगीके अन्य सब विकल्पोंक दूर होनेपर भी ग्राह्य-ग्राहककं आकार विकल्पात्मक संवेदनका प्रतिभासन होता है, बिना इसके वह बनता ही नहीं, और जब विकल्पात्मक संवेदन हुआ तो सकल विकल्पोंसे शून्य विज्ञानाद्वैत तत्त्व न रहा ।
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(इसी तरह) जो विज्ञानाद्वैत तत्त्व सम्पूर्ण अभिलापों ( कथन प्रकारों) की आम्पदता ( श्राश्रयता ) से रहित है - जाति, गुण, द्रव्य, क्रिया और यच्छा (संकेत) की कल्पनाओंसे शून्य होनेके कारण उस प्रकार के किसी भी विकल्पात्मक शब्दका उसके लिये प्रयोग नहीं किया जासकता - वह निगद्य ( कथन के योग्य) भी नहीं होसकता- दूसरों को उसका प्रतिपादन नहीं किया जासकता ।
( अतः हे वीरजिन ! ) आपकी उक्तिसं अनेकान्तात्मक स्याद्वाद से - जो बाह्य है वह सर्वथा एकान्तरूप विज्ञानाद्वैत-तत्त्व (सर्वथा विकल्प और अभिलापसे शून्य होने के कारण) सुपुप्ति अवस्थाको प्राप्त हैं -- सुषुप्ति में संवेदनकी जो अवस्था होती है वहीं उसकी अवस्था है । और इससे यह भी फलित होता है कि स्याद्वादका आश्रय लेकर ऋजुसूत्र नयावलम्बियोंके द्वारा जो यह माना जाता है कि विज्ञानका तत्त्व विज्ञान के अर्थ पर्यायके आदेश ही सकल - विकल्पों तथा अभिलापोंसे रहित है और व्यवहारनयावलम्बियों के द्वारा जो उसे विकल्पों तथा अभिलापोंका आश्रय स्थान बतलाया जाता है वह सब आपकी उक्ति बाह्य नहीं है- आपके सब नियम - त्यागी स्याद्वादमत के अनुरूप है ।'
कात्म-संवेद्यवदात्म-वेद्य
तन्ग्लिष्ट-भाषा-प्रतिम - प्रलापम् । अनङ्ग-स ंज्ञं तदवेद्यमन्यैः स्यात् त्वद्विषां वाच्यमवाच्य तत्त्वम् ॥२०॥
' का स्वसंवेदन जिस प्रकार आत्मवेद्य है- अपने आपके द्वारा ही जाना जाता हैउसी प्रकार विज्ञानाद्वैततत्त्व भी श्रात्मवेय है-स्वयं के द्वारा ही जाना जाता है । आत्मवेद्य अथवा 'स्वसंवेद्य' जैसे शब्दोंके द्वारा भा उसका अभिलाप (कथन) नहीं बनता, उसका कथन गूङ्गेकी अस्पष्ट भाषाके समान प्रजाप-मात्र होनेसे निरर्थक है- वह अभिलापरूप नहीं है। साथ ही, वह अनङ्गसंज्ञ है— अभिलाप्य न होनेसे किसी भी अङ्गसंज्ञाके द्वारा उसका संकेतन ही किया जा सकता । और जब वह अनभिलाप्य तथा अनङ्गसंज्ञ है तब दूसरोंके द्वारा अवेद्य (अज्ञेय ) है -दूसरोंके प्रति उसका प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। ऐसा (हे वीरजिन !) आपसे आपके स्याद्वादमत से -द्वेष रखने वाले जिन ( संवेदना -