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किरण ६-७]
एक प्राचीन ताम्रशासन
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ही-फुटनोटमें नहीं-उपस्थित किये हैं, मानों वे मेरी ५२ भाव उपलक्षण हैं। प्रकृतमें सुधादि प्रवृत्तियोंका अभाव दृष्टि में न हों और अन्त में मुझसे पूछा है कि 'मेरे मता- प्राप्तमें अर्थपरक उपलक्षण है और उससे रत्नकरण्ड नुसार धादिवेदनाओंका प्रभाव प्राप्तका किस प्रकारका श्रावकाचारका कर्ता प्राप्तको मानवाकृतिसे भी इतीत उपलक्षण है और रत्नकरण्डकार उसके द्वारा प्राप्तकी का बतलाना चाहता है। अर्थात् 'वे (केवली भगवान) लोकोत्तर विशेषता बतलाना चाहता है ? उसके द्वारा प्राप्तको सरागी परम-ग्रामा है' यह उसके द्वारा प्रकट करमा उन्हें अभीष्ट देवोंके सदृश बतलाना उन्हें अभीष्ट है या उनसे पृथक ।' है। सरागी देव मानवप्रकृतिसे अतीत (अमानव) होते मेरे द्वारा लक्षण और पलक्षणमें सप्रमाण दिखाये गये हुए भी वे प्राप्तसे पृथक हैं, प्राप्त तो मानवप्रकृतिरहित अन्तरमें अापने कोई दोष नहीं बतलाया और जब उसमें और देवाधिदेव है एवं धार्मिक्षयजन्य अपरिमित विशेषकोई दोप नहीं है तो उपलक्षणके लांगल पुच्छकी तरह तात्रोंसे युक्त है, पर सरागीदेव केवल मानव प्रकृतिरहित अन्यथासिद्ध और लक्षणों को प्रस्तुत करना सर्वथा अनावश्यक ही हैं एवं कर्मों के विशिष्ट क्षयोपशमजन्य सीमित और है उनसे सिद्ध-प्रसिद्ध कुछ भी नहीं होता। शब्दस्तोम- अल्पकालिक विशेषताओं-महादरोंसे ही युक्त हैं- वे महानिधिगत उपलक्षणके स्वरूपको प्रस्तुत करते हुए तो वे देवाधिदेव वीतरागदेव नहीं हैं, यह रत्नकरडश्रावकाचारके उपलक्षण और अजह स्वार्था लक्षणामें भेद ही नहीं समझ ६ ठवें पद्यमें उसके कर्ताने बतलाया है और यह स्वयं सके । श्रस्तु, हम पुनः दोहराते हैं कि हमने जो लक्षण प्राप्तमीमांसाकारकी ही द्वितीय रचना स्वयम्भूस्तोत्रके मानुषीं और उपलक्षणके मध्यमें न्यायकोप और हिन्दीशब्दसागरके प्रकृतिमभ्यतीतवान्' श्रादि ७५ वें पद्य के सर्वथा अनुकूल है। श्राधारसे अन्तर दिखाया है वह निर्दोष है और इसलिये श्रत: सरागी और वीतरागी देवोंके कुछ सादृश्यको लेकर वही हमारे लिये वह। विवक्षित है। वास्तवमें उपलक्षण उन्हें सर्वथा एक समझना या बतलाना भारी भूल है। कहीं तो शब्दपरक होता है, जैसे "काभ्यो दधि रक्ष्य- इस सम्बन्धमें पीछे पर्याप्त विचार किया जा चुका है अत: ताम्" में काक पद उपलक्षण है और कहीं अर्थपरक और अधिक विस्तार अनावश्यक है। होता है, जैसे प्रात्माके ५३ भावों में जीवत्वभावके अलावा
(क्रमश:)
एक प्राचीन ताम्र-शासन अर्सा हुआ भारत सरकारके अभिलेख-वेत्ता डा. हीरानन्दजी शास्त्री एम० ए० ने ऊटकरण्ड (मद्रास) से एक प्राचीन ताम्रशासनकी प्रतिलिपि (कापी), कुछ प्रश्नों के साथ, मुनि पुण्य विजय के पास पाटन भेजी थी और उनके पाससे, तत्सम्बन्धी जानकारीके लिये, मुझे प्राप्त हुई थी; क्योंकि ताम्रशासन का सम्बन्ध आर्यनन्दि नामके दिगम्बराचायरी है, जिन्हें इस शासनपत्रमें 'जम्बूखण्ड' गणका श्राचार्य लिखा है और विस्तृत ज्ञान-दर्शन-तपसे सम्पन्न बतलाया है । ये आचार्य उस समय ‘जलार' ग्राममें जो कि कण्माण्डी देशके अन्तर्गत पर्वत-निकटवर्ती ग्राम था, अपने गण अथवा संघ-सहित स्थित थे। इनके नामपर इस शासनपत्रमें ग्रामके उत्तर में स्थित पूर्विण ग्रामका ५० निवर्तन क्षेत्र, भगवान अहंन्तकी प्रतिमा अथवा प्रतिमाओंकी नित्यपूजाके लिये और शिक्षक (शैक्ष्य-शिष्य ?), ग्लान (रोगी) तथा वृद्ध तपस्वियोंकी वैयावृत्ति (सेवा) के लिये, दान किया गया है, जिसकी सीमाओं का दानपत्रमें स्पष्ट उल्लेख है। यह दान उन श्रीमान् इन्द्रणन्द अधिराजकी ओरसे, अपने वंशजोंकी और अपनी धर्मवृद्धिके लिये,