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किरण ६-७]
रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
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से । कर्मों के सर्वथा क्षयसे जो दोषाभाव अथवा गुण होता चार-चार महीने और एक एक वर्ष तक प्रतिमायोग धारण है वह अपने परिपूर्ण रूपमें और सदाके लिये होता है। करनेपर भी कभी थकते नही हैं और न उन्हें पसीना ही उस नष्ट शेषके अथवा उत्पा गुणके अभावके पुन: होनेकी पाता है। राजवार्तिषका यह उद्धरण इस प्रकार है:किसी भी काल, किसी भी क्षेत्र और किसी भी पर्याय में वीर्यान्तगय . योपशमाविभूतासाधारणकायबसम्भावना नहीं रहती। एक बार उत्पन्न हुया फिर वह सदैव लत्वान्मासिकचातौमिक-सांवत्सरिकादिप्रतिमायो - अनन्त कालतक वैसा ही बना रहता है-उसकी प्रच्युति फिर नहीं होती। पर फर्मों के क्षयोपशमसे जो दोषाभाव।
: नधारणेऽपि श्रम-लमविरहिताःकायबलिनः "पृ.१४४ अथवा गुण होता है वह न्यूनाधिक और किसी निश्चित
देवोंके आयुकर्म और पतिकर्मका उदय मौजूद है और काल तक के लिये ही होता है और इसीलिये तयोपशमिक श्रापुकर्म तो प्रतिक्षण गलता भी रहता है फिर भी उनके गुण अथवा दं.षाभाव तरतमता-न्यूनाधिकताको लिये हुए पये
झरा नहीं पाती- उसका प्रभाव है और इसीलिये उन्हें जाते हैं और असंख्यातरूपसे वे घटते बढ़ते रहते हैं--एक 'निर्जर" कहा गया है। यदि पूछा जाय कि उनके जराका बार उत्पन्न हश्रा क्षयोपशमिक गुण अथवा दोषाभाव प्रभाव किस कर्मके क्षयसे है या किस तरहसे है ? तो इसका कालान्तर, देशान्तर और पर्यायान्तमें नष्ट होकर पुनः भी उत्तर यही दिया जायगा कि यद्यपि उनके वीर्यान्तरायकर्मका उत्पन्न हो जाता है। उदाहरणस्वरूप एक वीर्यान्तरायकर्मके उदय है- क्षय नहीं है फिर भी उसका उनके भवनि मत्तक क्षयोपशमको ही लीजिये, वह सर्वतो न्यून सूक्ष्म निगोदिया विशिष्ट क्षयोपशम है और उससे उन्हें ऐसा बल प्राप्त रहता लब्ध्यपर्याप्तकके होता है और सर्वतो अधिक तेरहवें गुण- है कि जिसकी वजहसे वे बुढापाको प्राप्त नहीं होते। इसी स्थ नके उन्मुख हए बारहवें गुणस्थानवी महायोगी क्षयोपशमके :भावसे पसीनका भी उनके प्रभाव है। तात्पर्य निर्ग्रन्थक और सर्वार्थसिद्धिके देव है। मध्यवर्ती संख्यात यह कि इस फर्मके क्षयोपशमका बड़ा अचिन्त्य प्रभाव है। भेदसरे अनन्त प्राणियोंके हैं। एक ही जीवके विभिन्न इसी प्रकार मोहनीय, ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोकालों में वह संख्यातीत प्रकारसे हो सकता है। इस वीर्यान्स- पशमको भी समझना चाहिये । निद्रादर्शनाचरण कर्मका रायकर्मके क्षयोपशमका ही प्रभाव है कि दोनो छह-छह उदय उनके विद्यमान है-उसका उनके क्षय नहीं है फिर महीने और यहाँ तक कि बारह वर्ष तक भी मानवशरीरमें भी जो उनके निद्राका अभाव है और वे सदैव 'निनिमेष भूख-प्यासादिकी वेदना नह हो पाती। यह बात तो श्राज अथवा 'अस्वप्न' बने रहते हैं वह उस कर्मके भावनिमित्तक भी अनुभव सिद्ध है कि वीर्यन्तरायकर्म के क्षयोपशमकी विशिष्ट क्षयोपशमकी ही कृपा है। अन्तम तमें समग्र न्यूनाधिकतासे कोई एक ही उपवास कर पाता है या मामली द्वादशाङ्ग श्रुतका पारायण करने वाले श्रुतकेवलीको कौन ही परिश्रम कर पाता है और दूसरा स-स बीस-बीस नहीं जानता ? अत: यही बात प्रकृतमें समझिये । फेवली उपवास कर लेता है या बड़ा-सा पहा परिश्रम करके भी भगवानके चूकि वानिकर्मोंका सर्वथा क्षय हो चुका है. थकानको प्राप्त नहीं होता। अकलंकदेवने राजवार्तिकमें एक इसलिये उनके सुधादि प्रवृत्तियोंका प्रभाव उन कायबलअद्धिधारी योगी मनिका वर्णन किया है जिसमें कोक सर्वथा क्षयजन्य है और सरागी देवोंके कि वातकहा गया है कि उन्हें वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशमसे असा
कर्मोका एक खास तरहका क्षयोपशम है और इसलिये उनके धारण काय-बल प्राप्त होता है जिससे वे एक एक महीने,
उन प्रवृत्ति का खास तरह का अभाव है और वह क्षयं पशम
जन्य है, जो क्षयोपशम उनकी आयु पर्यन्त ही रहता है प्राविर्भाव कुछ अधिक ६६ सागर तक बना रहता है।
तथा मा के समाप्त होनेपर पर्यायान्तर-मानव या तियंचऔर तय-अवस्थामें दोषाभव और गुरु का आविर्भाव सादि होता हश्रा अनन्त काल तक स्र्थात सदैव रहता १ "प्रमरा निजरा देवास्त्रिदशा विबुधाः।"-मरकोष १-७ है-फिर उसकी प्रच्युति नहीं होती। इन दोनोंपर ही २ "प्रादित्या ऋभयोऽस्वप्ना भमा अमृतान्धसः।" प्रकृतमें विचार किया गया है।
-अमरकोष १-८॥