________________
२८४
अनेकान्त
1
की पर्याय - ग्रहण करते ही उस पर्यायानुकूल भूख-प्यासारिकी प्रवृत्ति होने लगती है अपनी पर्याय तो उन मानव साधारण प्रवृत्तियका अभाव ही है। तान्पर्य यह हुआ कि सुधारिवृत्तिका प्रभाव घातिया कर्मोंके मेकर उनके क्षयोपशमये दोनोंसे होता है। उनका सर्वथा श्रात्यन्तिक प्रभाव तो केवली के होता है जो घातिकर्मों के दाय-अन्य है और दैशिक फालिक और पाकि उनका अभाव सरागी देवों या विशिष्ट योगियों के होता है जो घातिकमों के योपशमय है और इसलिये पानिया था क्षत्रीपशम और तुषा प्रवृत्तियों के प्रभावमें कारण-कार्यभाव सोपपत्र है - इसमें कोई बाधादिदोष नहीं हैं ।
,
हमारे इस विवेचनका समर्थन आचार्य विद्यानन्दके अपहरवीगत महत्वपूर्ण शंका समाधान भी हो जाता है,
जो इस प्रकार है
-
[ वर्ष =
विद्यानन्दके इस शंका-समाधानसे स्पष्ट है कि केली सुधादि प्रवृत्तियों का प्रभावरूप महोदय घातिया कर्मण्य-अन्य है और सरागी देवोंके पतियाकर्मजन्य न होकर उनके क्षयोपशम-जन्य है। यही कारण है कि उम्र महोदय को श्रतिशयमात्र ही बतलाया गया है- उसे लक्षण को में नहीं रखा और इसलिये यह उपलक्षण हो सकता है। यहाँ हम यह भी प्रकट कर देना चाहते हैं कि सचापि प्रवृत्तियों यथासम्भवप्रवृत्तियोंका ही प्रभाव देवों में है, जैसे पसीनाका अभाव, अराका अभाव मानवीय सुधा पिपासाका प्रभाव श्रातंक (रोग) का अभाव, अकाल मृत्युका अभाव आदि । और इनकी अपेक्षा सरागी तथा बीउरागी देवोंमे समानता है और राग, द्वेष, मोट, चिन्ता, भय आादिके अभावकी । अपेक्षा उनमें असमानता है। आप्तमीमांसामै चूँकि हेतुवाइ आसका निर्याय अभी है, इसलिये यहाँ वह केवल समा मता (रागा, सर्वज्ञता और हितोपदेशकता) ही शिक्षित हुई है और इसीके द्वारा भरहन्तको कपिलादिसे व्यवच्छेद करके प्राप्त सिद्ध किया गया है। पर, स्नकरण्ड श्रावकाचार चूंकि अचानक धर्मका प्रतिपादक ग्रंथ है, अतः वहाँ हेतुवाद और श्रहेतुवाद (श्राज्ञावार श्रागमवाद) दोनों द्वारा स्वीकृति अतिशयदि भी भाप्तका स्वरूप वर्णित किया गया है। इससे रूष्ट है कि आप्तमीमांसा बुधादि प्रवृत्तियोंका प्रभाव भी केवली में विवक्षित है। पर, लक्षणरूपसे नहीं, किन्तु उपलक्षण अथवा प्रतिश रूपसे ।
।
लक्षण और उपलक्षयका विवेक
मैंने अपने इसी लेखमें श्रागे चलकर यह बतलाया था कि 'नकरण्ड (श्लोक ५) में आप्तका स्वरूप तो सामान्यतः चाप्तमीमांसाकी ही तरह “आमेनोत्सन्नदोषेण" इत्यादि किया है। हाँ, आप्तके उक्त स्वरूपमें आये 'उत्सन्नदोष' के स्पष्टीकरणार्थ जो वहाँ क्षुत्पिपासा आदि पद्म दिया है उसमें लप- राग पादिका अभाव और उपलक्षण सुचादिका अभाव दोनोंको 'उत्सन्नदोप के स्वरूपकोटि में प्रविष्ट किया गया है।' और फुटनोटमें न्यायकोप तथा संक्षिप्तहिन्दीशब्दसागरके आधारसे लक्षण कर उपलक्षणमें भेद दिखाया था। इसपर प्रो० सा० मे उपलचणके दो-तीन और खा अपने मूल लेख में
। स
“अथ यादृशो घातियजः स (विग्रहादिमहो दयः) भगवति न तादृशो देवे येनानैकान्तिकः स्थान दिवोकस्वप्यस्ति रागादिमत्सु नैवास्तीति व्याख्यानादभिधीयते । तथाप्यागमाश्रयत्वाद देतु: पूर्ववन । पृ० ४ ।
विद्यानन्द पहले शंकाकार बन कर कहते हैं कि जैसा धारियाकर्मण्यम्य वह निःस्वेदम्यादि महोब भगवान में पाया जाता है वैसा देवोंमें नहीं है, उनके तो घातकर्म मौजू हैं— मात्र उनका क्षयोपशम है और इसलिये उनका मदन कोंके उयजन्य नहीं है— उपोपजन्य ही है। अतः हेतु अनेकाधिक नहीं है और इसलिये यह महोदय ( वातिकर्मक्षय-जन्य) श्राप्तपनेका निर्णायक होसकता है । इसका वे फिर उत्तरकार बनकर उत्तर देते हैं कि फिर भी (उ प्रकार हेतु व्यभिचार पारित हाँ जानेपर भी) हेतु आगाम श्रय है, पहलेकी तरह । श्रर्थात् वह श्रागमपर निर्भर है— श्रागमकी अपेक्षा लेकर ही साध्य सिद्धि कर सकेगा; क्योंकि श्रागममें ही भगवान के निःस्वेदत्यादि मह को घातियाकमंहय-अन्य बतलाया गया है और इसलिये यहाँ हेतुवादसे आप्तका निर्णय करने में वह विधि है।
-