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किरण ६-७]
धर्म और नारी
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वासवमें संसारके प्रत्येक देश, जाति धर्म संस्कृति मनोवृत्ति से अभिभूत महाशयकी प्रेरणापर, श्वेताम्बर दृष्टऔर सभ्यताके प्रतीन इतिहास एवं वर्तमान वस्तुस्थित कोणसे लिखा है। इस लेख में यह सिद्ध करनेको चेष्टा की परसे ऐसे अनगिनत उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनसे गई है कि जैनधर्मके श्वेताम्बर सम्प्रदायकी अपेक्षा दिगम्बर कि उनमें स्त्रीजातिपर पुरुष जाति के अत्याचार और अन्याय- सम्प्रदाय बहुत अनुदार, संकीर्ण और अविवेकी है; क्योंकि का प्रत्यक्षीकरण हो जाता है। क्या ..चीन भारत, चीन. उसमें स्त्रीमुक्तिका निषेध किया है, जबकि श्वेताम्बर संप्रदाय मिश्र, बेबिलोनिया, सुमेरिया, यूनान और रोम, क्या अवी- में उसका विधान है। लेखकने दिगम्बर सम्प्रदायके संबंध चीन युरोप, अमेरिका और एशिया अथवा अफ्रीका, कितनी ही अमपूर्ण, निस्सार एवं अयथार्थ बातें लिम्वकर अमेरिका, पूर्वी पश्चिमी द्वीपसमूहों तथा अन्य स्थानोंकी अपने मतकी पुष्टि करनी चाही है । और प्रसंगवश, हिन्दअर्धसभ्य, असभ्य जातियाँ सभीने धर्मत:, कानूनन अथवा धर्ममें नारीकी सम्मानपूर्ण श्रेष्ठताका भी प्रतिपादन कर रिवाजन, न्यूनाधिकरूपमें नारीको पुरुषको सम्पत्ति, उसके दिया है !! स्वत्वाधिकारकी वस्तु और एक उपभोग्य सामग्री समझा है। और कोई भी धर्म इस बातका दावा नहीं कर सकता कि
वास्तव में स्त्रीमुक्ति का प्रश्न जैनधर्मकी एक गौण उसके किसी भी धर्मगुरुने कभी भी स्त्रियोंको परुषोकी अपेक्षा
सैद्धान्तिक मान्यतामात्र है इम मान्यताका प्रारम्भ और हीन नहीं समझा, उसकी उपेक्षा और निन्दा नहीं की।
इतिहास बहुत कुछ अंधकारमें है, और वर्तमान स्तुस्थिति
पर इसका कुछ भी असर नहीं पड़ता । किन्तु फिर भी इसी किन्तु इतनेपर भी यह प्राय: देखनेमें आता है कि
प्रश्न को लेकर दोनों सम्प्रदायोंके बीच काफ़ी खींचतान और प्रत्येक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्मोकी निन्दा इस बातको
और एक प्रकारका कल्पित भेद खड़ा किया जाना है। लेकर करते हैं कि उनमें स्त्री जाति के प्रति अन्याय किया
दोनों ही सम्प्रदायोंके कितने ही विद्वान इस प्रश्न के पक्षनया है । अपने धर्मकी विशेषताओं, अच्छाइयों और
विपक्षका प्रतिपादन करनेमें अपनी शक्ति और समयका व्यर्थ
दुरुपयोग करते देखे जाते हैं। युगेपीय तथा भारतीय अजैन खूबियोंको संसारके सामने रखनेमें कोई दोष नहीं है. किन्तु यदि दूमरोंकी कोरी निन्दा और छीछालेदर करके मुकाबले में
विद्वानोंको. जैनधर्मका. जो परिचय दिया गया और प्रारंभ स्वधर्मकी श्रेष्ठता स्थापित करनेका प्रयत्न किया जाता है तो
में तथा अधिकांश में वह परिचय श्वेताम्बर बंधुओं द्वाग वह अवश्य ही अनुचित एवं निन्दास्पद कहा जायगा, और
दिया गया-उसमें भी उन्होने प्रायः इमी बातपर जोर दिया
कि श्वेताम्बर स्त्री मुक्ति मानते हैं दिगम्बर नहीं मानते, दोनों विशेषकर जबकि वैसी बुराइयोंसे अपना वह धर्म अथवा उसका साहित्य और संस्कृति भी अछूती न बची हो! परन्तु
सम्प्रदायोंमें यही मुख्य भेद है । अत: अजैन विद्वानोंकी हो यही रहा है। इस विज्ञापन-प्रधान युगकी विज्ञापनवानी
जैनधर्म-सम्बन्धी रचनात्रोंमें इसी मान्यताका विशेष रूपसे
उल्लेख मिलता है। जैनमिद्धान्त और साहित्यका गम्भीर का प्रवेश धार्मिक और साहित्यिक क्षेत्रमें भी खूब कराया
अध्ययन करने के उपयुक्त साधनों और अवकाशके प्रभावमें जारहा है। 'धर्मदूत' वर्ष ११ अंक २-३ पृष्ठ २३ पर एक
वे इन संक्षिप्त संकेनोपर ही संतोष कर बैठे हैं। बौद्धविद्वान्का लेख 'बुद्ध और नारीममाज' शीर्षक से प्रका. शित हुआ है, जिसमें बौद्ध तर हिन्दु, जैन श्रादि धर्मों में
वस्तुन: दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही इस विषयमें नारीको हीनावस्थाका दिग्दर्शन कराते हुए चौद्धधर्ममें उसका बिल्कुल एकमत हैं कि भगवान महावीर के निर्माणके ३-४ स्थान अपेक्षाकृत श्रेष्ठ एवं न्यायपूर्ण सिद्ध करनेका प्रयत्न वर्ष बाद ही, जैनकालगणनानुमार, चौथे कालकी समाप्ति किया गया है। इसी प्रकार 'प्राचीनभारत' चैत्र. १६६७ होगई थी। इसके बाद पंचक.ल शुरू हुश्रा जिसकी प्र. १५४ पर डा. एम. मुकर्जीका लेख 'जैनधर्ममें नारी अवधि २१००० वर्ष है. उसके बाद २१००० वर्षका छठा का स्थान' शीर्षकसे प्रकट हुआ था। विद्वान् लेखकने स्वयं
काल पायेगा, फिर उतने ही वर्षोंका उत्सरिणीका छठाक.ल अजैन होते हुए भी यह लेख, संभवतया किसी साम्प्रदायिक पायेगा, उसके पश्चात् उतने ही वर्षांका पंचमकाल