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अनेकान्त
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स्त्रियोंके विषयमें ही समझना चाहिये, क्योंकि शीलवती इतनेपर भी. इस विषय में सन्देह नहीं है कि पुरुषजाति स्त्रियाँ गुणोंका पञ्ज स्वरूप ही हैं, उनकी दोष के छ ने धम जैसी पवित्र और सर्व कल्याणकारी वस्तु के नामपर सकते हैं।"
भी स्त्र जाति के साथ अन्याय किये ही हैं । वस्तुतः, जैमा श्राराजित सूर (E वी शतान्दा ), श्राचार्य कि वंगीय साहित्य महारथी स्व० शरत् बाबूने कहा हैजयन्दि (१०वीं शनाब्दी) पं० श्राशाधरजी (१३ वी 'समाज में नारीका स्थान नीचे गिरनेसे नर और नाग दोनों शताब्दी) इत्यादि विद्वानांने शिवार्यके उपयुक्त कथनका का ही अनिष्ट होता है और इस अनिष्टका अनुसरण करनेसे समथन किया है। जैन योगके प्रसिद्ध ग्रन्थ ज्ञानार्णवमें समाजमें नागका जो स्थान निर्दिष्ठ हो सकता है. उसे श्राचार्य शुभचन्द्र ने कहा है. अाह! इस समारमें अनेक समझना भी कोई कठिन काम नहीं है । समाजका अर्थ है स्त्रियाँ ऐसी भी हैं जो शमभाव (मन्दकपायरूप परिणाम)
नर और नार्ग। उसका अर्थ न तो केवल नर ही है और न और शीलसंयमसे भूपित हैं तथ अपने वंशमें तिलक भूत
केवल नारी ही है।" तथा "सुमभ्य मनुष्यको स्वस्थ संयत हैं, उसे शोभायमान करती हैं तथा शास्त्राध्ययन और तथा शुभबुद्धि नारीको जो अधिकार अर्पित करने के लिये मत्यभाषणसे अलंकृत है।' तथा 'अनेक स्त्रियाँ ऐमीर कहता है वही मनुष्यकी सामाजिक नीति है, और इसे जो अपने सतीत्व, महल, चारित्र, विनय और विवेकसे समाजका कल्याण होता है। समाजका कल्याण ६ इस पृथ्वंतलको भाषत करती महापराण में जिनसेन नहीं होता कि किसी जातिकी धर्मपुस्तक में क्या लिखा स्वामं ने गुणवती नारीको स्त्री सरिम प्रमुखपद प्राप्त करने हे और क्या नहीं लिखा है।” सामाजिक मानव के संबंध में गली बताया है (नारी गुणवती धत्तं स्त्रीसृष्टिर ग्रिमं पदम)। एक अग्रेज विद्वानकी उक्ति हैगुणभद्राचार्य कृत 'श्रात्मानुशासन' की टीकामें, अनुदार
"Perhaps in no way is the moral एवं स्थितिपालक कहे नाने वाले दल के एक श्राधु नक
progress of mankind more clearly
shown than by contrasting the posiविद्वानका कथन है कि+-'... पुरुषों को मुख्य मानकर tion of women among savages with उनको संबोधन कर यह उपदेश दिया गया है किन्तु स्त्रीके their position among the most लिये जब यह उपदेश समझना हो तब ऐमा अथ करना advanced of the civilized." अर्थात् असभ्य चाहिये कि स्त्रियाँ कुत्सित व्यभिचारी पुरुषों के संबंधसे वहशी लोगोंमें स्त्रियोंकी जो श्रवस्था तथा समाजके व्यसनोंमें आसक्त होकर आत्मदिनसे वंचित रहती हुई सर्वाधिक उन्नत लोगों में स्त्रं जातिकी जो स्थिति है, उसकी अनेक पाप संचत करके क्या नरकाम नहीं पड़ती ? अवश्य तुलना करनेसे मानव जातिकी नैतिक उन्नतिका जितना पड़ती है, और उनको नरकोंमें दुलनेमें निमित्त वे पुख्य स्पष्ट और अच्छा पता चलता है उतना शायद किसी अन्य होते हैं। इमानये वे पुरुष उन्हें नरक घोर दुःखोंम प्रवेश प्रकारसे नहीं हो सकता । अस्तु, मानवकी सभ्यता, सुसंस्कृति कराने के लिये उघड़े हुए विशाल द्वारके समान है। ....... शिष्टता और विवेककी कसोटी स्त्रीजानिके प्रति उसका गृधर्मम स्त्रियोंके द्वारा परुषोंको जो अनेक उपकार मिलते व्यवहार और परिणामस्वरूप स्त्रीजातिकी सुदशा है। हैं उनके बदलेमें वे पापी परुष हैं कि जो उनको नरक में वर्तमानमें, मनुष्यके लिये अपनी २ समाज, जाति और डालकर उनका अपकार करने वाले हैं।'
वगकी अवस्थाको इस मापदण्डसे ही जाँचना और श्रादर्श इस कार स्त्री जाति के संबंध में जैनधर्म और जैनाचार्यो
प्राप्तिकेलिये प्रयत्नशल होना ही सर्वप्रकार श्रेयस्कर होगा। को नीति एवं विचार सष्ट हैं और वे किसी भी अन्य धर्म वीरसेवामन्दिर
ता०६१-४७ की अपेक्षा श्रेष्ठतर है।
* शरत्वाबूका निबंध 'नारीर मूल्य' (नारीका मूल्य) + जै० म० ए० कार्यालय बम्बई से प्रकाशित-श्रात्मा- -पृ.६७, ७४, ६४ नुशासनकी पं. वंशीधर कृत हिन्दी टीका पृ.६५