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किरण ६-७]
धर्म और नारी
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है कि कई पारवा नकाएँ सिर मुंडन कर, मोरपंख बना सकता है । और ये बातें स्त्री तथा पुरुष दोनोंके लिये और कमंइल लिये तस्या किया करती थीं। उनके पर्यटन समान रूपसे लाग होती है । जैनाचायोंने 'वस्तु के स्वभाव' और स्वतंत्र विहार में कोई रुकावट न थी, जबकि श्वेताम्बर को धर्म कहा है अर्थात् जो जिम चीनका स्वभाव होग आर्थिकाएँ प्राय: उपाश्रयाम ही रहती हैं ।
है-उमा निज गुण होता है-यही उमका धर्म है। वास्तवमें, आज जितना धर्मसाधन, श्रात्मकल्याण आत्माकी जो असलियन है, उसके जो पगनपेक्ष वास्तविक और अपने पक्तत्वका विकास एक पुरुष कर सकता है निजी गुण है वही सब उसका धर्म है, उसकी मौजूदगी में उतना हे' एक स्त्री भी कर सकती है, इस विषयमें दोनों ही ही उसे एचा सुग्व, शान्ति और स्वतन्त्रता प्राप्त होती है । सम्प्रदायोमें कोई मतभेद नहीं है। और साथ ही एक जिन नरियोके द्वारा या जिम मार्गपर चलकर अात्मा पुरुष भी यदि वह कुशल है, चाव्यहीन है । अपन अपने उम अमली स्वभावको प्राप्त होता है व्यवहारमें, अपाहज या शक्ति-सामर्थ्यहीन है तो वह भी की सर्वोच्च उस मार्ग या नरियोंको ही धर्म कहते हैं। स्वामी समन्तपदकी प्राप्ति उमी जीवन में नहीं करसकता. इस कार्यकी भद्राचार्यकै अनुमार इस धर्मका कार्य प्राणियोश्रो दुःखसे सफलताके लिये तो सर्वाङ्ग सर्वश्रेष्ठ शारीरिक मानसिक निकालकर सुखमें धारण करना * । स्त्री और पुरुष संगठन तथा सर्वोत्तम चारित्र, पूर्ण वीतरागताका होना दोनोंकी ही श्रात्माएँ समान हैं, उनके श्रात्मक गुण और अत्यन्त श्राश्यक है
स्वभाव बिल्कुल यकों हैं, उन्म नानकसा भी अन् र जहाँ तक धर्मसाधन और स्त्री-पुरुष सम्बन्धका प्रश्न
नहीं होता । दुःख और सुखका अनुभव तथा दुःखसे बचने है, उस विषयमें किसी अन्य कमेने स्त्री पुरुष के बीच कई
और सुख प्राप्त करने की इच्छा भ दोनोमे बर बर हे अपने भेद भले ही किया हो, किन्तु जैनतीर्थरों और धर्माचार्योका ।
धर्म अर्थात् स्वभावको हासिल करने का दानों को ममान हाटकोण सदेवसे बहुत ही उदार एवं साम्यवादी रहा है। अधिकार है, और उस धमके साधनमें दोना है। समान
रूपसे स्वतन्त्र है । ऐसी जेनमान्यता है और इसमें दिगम्बर उन्होंने मोक्ष प्राप्तिका श्रधार किसी व्याक्त या शक्ति विशेष की अनुकम्पा. अनुग्रह अथवा प्रसन्नताबो नहीं रखवा.
और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय पूर्णतया एकमत हैं । वरन् प्रत्येक व्यक्ति के अपने स्वयं के किये को, पुरुषों
धमके श्रादिप्रवर्तक प्रथम जैन तथंकर भगवान और प्राचरणोके ऊपर उसे अवलम्बित किया है । इस
ऋषभदे ने भागप्रधान अज्ञानी मानव समासमें सभ्यताका सिद्धान्तके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति स्वोपान्ति कर्मफे अनुरूप
सर्व प्रथम संचार किया था, उन्होने उसे कर्म करने के लिये हो अपनी भावी अवस्था और स्थितिका स्वयं ही निर्माण
प्रोत्साहित कया, विविध शिल्पों और कला श्रीकी शिक्षा करता है। उसका भविष्य और उस भविष्यका बनना
दी, सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था स्थापतकी। उन बिगाडना उसके अपने श्रार्धन है, मरे वि.सका उसमें
श्रादिपुर पने अपने अनेक पत्रोके माथ साथ अपनी दोनों कोई दखल नहीं । इतना ही नहीं, वह मद्धर्माचरण पुत्रिया वाही और दर्गको भी विशेषरूपसे शिक्षा-दीक्षा तप-संयम, तथा कंधादि क.पायांकी मन्दतारूप अपने
दी थी। कुमारी वहां के लिये ही सर्वप्रथम लिपिकालाका वर्तमानमें किये सदुद्योगो द्वारा घोजित दुष्का शुभ
प्रकार किया ६. और इसीलिये भारतका प्राचीनतम फलमें भी परिवर्तन कर सकता है. कभी कभीके पिछले
लिपि 'बाही' कहलाई-ऐसी जैन अनुभूति है । दिगम्बर बंधे कौका भी नाश कर सकता है, और अपने लिये
ग्रन्थों में उल्लेखित चयति नरेशीकी बलियाँ इन शक्तिमुक्तिका मार्ग प्रशस्त कर सकता है। हिसाक स्व-पर- मताहता था कि वे अपनी कोमल अंगगियोसे वज्रमश हितकारी श्राचरणसे और स्यादादात्मक अनेकान्त पिसे रत्नी (हार जवाहगत आदि) को नणं कर देती थीं और उत्पन्न सहिष्णुता और सहनशीलतासे वह न सिफ़ अपने अपने पात्योंकी विजययात्राके उपलक्षमें उस चणे से व्यक्तिगत जीवनको दी वरन् समस्त सामाजिक एवं राष्ट्रीय
र
चार
चौंक पृरती थीं। ब्राझी, अंजना, सीता, मैना, राजुल, 'अन्तरराष्ट्रीय जीवनको भी सुख और शान्ति पूर्ण अवश्य ही * संसार दुःखतः सत्त्वान् योपरत्युत्तमे सुखे।-र.क.श्र.१.२