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....:. अनेकान्त
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प्रयोग न करके 'स्त्रीष' पदका प्रयोग किया है जो सर्वथा द्रव्यस्त्रियोंके भक्ष सिद्ध होता है। यदि सूत्रमें 'संजद' पद न सिद्धान्ताम्रि और संगत है । यह स्मरण रहे कि हो, पाँच ही गुणस्थान प्रतिपादित हो तो यह द्रव्यस्त्रीमुक्तिमिडान्तमें भाषस्त्रीमुक्ति तो इष्ट है, द्रव्यस्त्रीमुक्ति इष्ट नहीं है विषयक हम प्रकारकी शंका, जो इसी सूत्रपरसे हुई है, किंतु सभ्यरष्ट-उत्ति-निषेध द्रव्य और भावस्त्रं दोनोंमें ही कदापि नहीं हो सकती) । इस शंकाका वीरसेन स्वामी उत्तर इष्ट है। अत: पंडितजीका यह लिखना कि ६३वे सूत्र में पर्याप्त- देते हैं कि यदि एसी शंका करो नो वह ठीक नहीं है अवस्यामें ही जब द्रव्यस्त्रीके, चौथा गुणस्थान सूत्रकारने क्योंकि द्रव्यस्त्रियाँ सवस्त्र होनसे पंचम अप्रत्याख्यान बताया है तब टीकाकारने यह शंका उठाई है हिं द्रव्यस्त्री (संयमासंयम) गणस्थानमें स्थित है और इसलिये उनके पर्यायमें सम्यम्ह क्या उत्पन्न नहीं होते हैं ? उत्तरमें कहा संयम नहीं बन सकता है । इस उत्तरसे भी स्ष्ट जाना घया कि द्रव्यस्त्रीपर्यायमें सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते
जाता है कि सूत्रमें यदि पाँच ही गुणस्थानोंका विधान है। क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? हमके लिये श्रार्ष प्रमाण
होता तो वीरसेनरवामी द्रव्यस्त्रीमुक्तिका प्रस्तुत 'सवस्त्र' बनलाया है। अर्थात् श्रागममें ऐसा ही बताया है कि द्रव्य
हेतुद्वारा निराकरण न करते, उसी सूत्रको ही उपस्थित करते स्त्रीपर्यायमें सम्यग्दृष्टि नहीं जाता है"। "यदि १३ वा सूत्र
तथा उत्तर देते कि 'द्रव्यस्त्रियों के मोक्ष नहीं सिद्ध होता, भावस्तीका विधायक होता तो फिर सम्यग्दर्शन क्यों नहीं
क्योंकि इसी श्रागमसूत्रसे उमका निषेध है। अर्थात् प्रस्तुत होता, यह शंका उठाई ही नहीं जा सकती क्योंकि भावस्त्री
६३ वें सूत्रमें श्रादिके पाँच ही गुणस्थान द्रव्यस्त्रियोंके बतके तो सम्बग्दर्शन होता ही है। परन्तु द्रव्यस्त्रीके लिये शंका
___ लाये हैं छठे श्रादि नहीं।' बीरसेनस्वामीकी यह विशेषता उठाई है। अत: द्रव्यस्त्री का ही विधायक ६३ वां सूत्र है।
कि जब तक किसी बातका साधक श्रागम प्रमाण रहता है यह बात स्पष्ट हो जाती है।" बहुत ही स्खलित और भूलोसे ।
तो पहले वे उसे ही उपस्थित करते हैं, हेतुको नहीं, अथवा भग हश्रा है। 'संजद' पदके विरोधी विद्वान् क्या उक्त सो
उसे पीछे भागमक समर्थन में करते हैं। विवेचनसे सहमत है ? यदि नहीं, तो उन्होंने अन्य लेखोकी
शंकाकार फिर कहता है कि द्रव्यस्त्रियों के भले ही तरह उक्त विवेचनका प्रतिवाद क्यों नहीं किया ? मुझे
द्रव्यसंयम न बने भावसंयम तो उनके सवस्त्र रहनेपर भो प्राश्चर्य है कि श्री पं. वर्धमानजीजैसे विचारक तटस्थ विद्वान् -
बन सकता है उसका कोई विरोध नहीं है? इसका वे पक्षमें कैसे वह गये और उसका पोषण करने लगे? पं० - माखनलालजीकी भूलोका श्राधार भावस्त्रीमें सम्यग्दृष्टिको पुनः उत्तर देते है कि नहीं, द्रव्यस्त्रियोंके भावासंयमीउत्पत्तिको मानदा है जो सर्वथा सिद्धान्त के विरुद्ध है। भावसंयम नहीं; क्योकि भावासंयमका अविनाभावी वस्त्रादि सम्यग्दृष्टि न द्रव्यस्त्रीमें पैदा होता है और न भावस्त्र में का ग्रहण भावासंयमके बिना नहीं हो सकता है। तात्पर्य यह हम पहले विस्तारसे सप्रमाण बतला पाये हैं । श्राशा यह कि द्रव्यस्त्रियोंके वस्त्रादि ग्रहण होनेसे ही यह प्रतीत हे पांडतजी अपनी भूलका संशोधन कर लेंगे । और तब वे होता है कि उनके भावसंयम भी नहीं है-भावासंयम ही प्रस्तुत ६३ वे सूत्रको भावस्त्री विधायक ही समझेगे। है. क्योंकि वह उसका कारण है। वह फिर शंकाकरता है
दूसरी शंका यह उपस्थित की गई है कि यदि इसी 'फिर उनमें चउदह गुणस्थान कैसे प्रतिपादित किये हैं ! प्रार्प (प्रस्तुत भागमसूत्र) से यह जाना जाता है कि हुण्डा- अर्थात् प्रस्तुत सूत्रमें 'संजद' शब्दका प्रयोग क्यों किया है ? बसर्पिणीमें त्रयोंमें सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते जो हमीर्घ इसका वीरसेनस्वामी समाधान करते हैं कि नहीं, भावस्त्री (प्रस्तुत आगम सूत्र) से द्रव्यस्त्रियों की मुक्ति सिद्ध हो जाय, विशिष्ट मनुष्यगति में उक्त चउदह गुणस्थानोंका सत्त्व प्रतियह तो जाना जाता है ? शंकाकारके सामने ६३ वाँ सूत्र पादित किया है। अर्थात् ६३ वें सूत्र में जो संजद' शब्द है 'संजद' पदसे युक्त है और उसमें द्रव्य अथवा भाषका स्पष्ट वह भावस्त्री मनुष्यकी अपेक्षासे है, द्रव्यस्त्री मनुष्यकी उल्लेख न होनेसे उसे प्रस्तुत शंका उत्पन्न हुई । अपेक्षासे नहीं। (इस शंका-समाधानसे तो बिल्कुल स्पष्ट हो यह समझ रहा है कि वे सूत्रमें 'संजद' पदके होनेसे जाता है कि प्रस्तुत ३३ सूत्रमें 'संजद' पद है और