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किरण ६-७
६३ वें सूत्रमें 'संजद' पदम विरोष क्यों ?
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उदय होनेपर जीव पर्यातक कहा जाता है। अत: उसका माव षादिककाल)में स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि क्यों नही स्त्पन होते? भी अर्थ है। दूसरे, वीरसेन स्वामीके विभिन्न विवेचने (इस शंकासे यह प्रतीत होना है कि वीरसेन सामीके सामने
और अकलकदेव के राजवात्तिकगन प्रतिपादनसे पर्शम कुछ लोगोंकी हुण्डावसर्पिणी कालमें स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्ट मनुष्यनियों के १४ गु-स्थानोका निरूपण होनेसे वहाँ 'पर्याप्त' उत्पन्न होनेकी मान्यता रही और इसलिये इस शंका द्वाग शन्दका अर्थ द्रव्य नहीं लिया जासकता है और इसलिये उनका मत उपस्थित करके उसका उननि. निराकरण किया 'पज्जतमणुस्मिणा' से द्रव्यस्त्रीका बोध करना महान् है। इसी प्रकारसे उन्होंने आगे द्रव्यस्त्री मुक्तिकी मान्यताको सैद्धान्तिक भूल है। मैं इस सम्बन्ध में अपने "संजद भी उपस्थिन किया है जो सूत्रकार के सामने नहीं थी और पदके सम्बन्ध में प्रकलंकदेवका महत्वपूर्ण अभिमत" उनके सामने प्रचलित थी और जिमका उनहोंने निराकरण शर्षक लेखमें पर्याप्त प्रकाश डाल चुका हूँ।
किया है। हुण्डावसर्पिणीकाल का स्वरूप ही यह है कि ' . . ४-हमें बड़ा आश्चर्य होता है कि 'संजद' पदके जिसमें अनहोनी बातें हो जायें, जैसे तीर्थकरके पुत्रीका विरोध में यह कैसे कहा जाता है कि 'वीरसेन स्वामीकी होना, चकरीका अपमान होना मादि। और इमलिये टीका उक्त सूत्रमें 'संजद' पदका समर्थन नहीं करती, उक्त शंकाका उपस्थित होना असम्भव नहीं है ।) वीरसेन अन्यथा टीकामें उक्त पदका उल्लेख अवश्य होता।' सामी इस शंकाका उत्तर देते हैं कि हुएडावसपिणी क्योकि टीका दिनकर-प्रकाशकी तरह संजद' पदका कालमें स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि मत्पन्न नहीं होते। इमपर ममर्थन करती है। यदि सूत्रमें 'संजद' पद न हो तो टीका- प्रश्न हा कि इसमें प्रमाण क्या ? अर्थात् यह कैसे गत समस्त शंका-समाधान निराधार प्रतीत होगा । मैं यहाँ जाना कि हण्डावरिणी में स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्ट उत्पन्न टीकागत उन पद-वाक्यादिकोको उपस्थित करता हूँ जिनसे नहीं होते ? इसका उत्तर यह दिया गया है कि इसी 'संजद' पदका प्रभाव प्रतीत नहीं होता, बल्कि उसका पागम-सूत्रवाक्यस उक्त बात मानी जाती है। अर्थात् समर्थन सष्टतः जाना जाता है। यथा
प्रस्तुत ६३ वे सूत्र में पर्यात मनुष्यनीके ही चौथा गुणस्थान 'हुण्डावरियां स्त्रीषु सम्यग्दृष्टयः कन्नोत्पद्यन्ते. प्रतिपादित किया है, अपर्याप्त मनुष्यनीके नहीं, इससे साफ इति चेत्, नोरयन्ते । कुतःऽवसीयते ? अमादेव. जाहिर है कि सम्यग्दृष्टि जीव किसी भी कालमें द्रव्य और र्षात । अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निवृत्तिः सिद्धयेत, भ व दोनों ही तरह की स्त्रियों में पैदा नहीं होते। अतएव इति चेत्, न; सबासस्वादप्रत्याख्यानगुणस्थितानां सुतगं सिद्ध हे कि हुण्डावसर्पिणामें भी स्त्रियोंमें सम्पष्टि संयमानुपपत्तेः । भावसंयमस्तासां सवाससमप्यविरुद्धः, पैदा नहीं हते। इति चेत. न. तासां भाव संयमोऽस्ति. भागसंयमा- यहाँ हम यह उल्लेख कर देना आवश्यक समझते विनाभाविवस्त्रायुगदानान्यथानुगपत्तः । कथं पुनस्तासु हैं कि पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने टीकोक्त 'स्त्री' पदका पतुदेशगुणस्थानानीति चेत्, न, भावस्त्रीविशिष्टमनुष्य- द्रव्यस्त्री अर्थ करके एक और मोटी भूल की है। 'लोष' गतो तत्सत्वाविराधात् । भावचेदो बादर षाय नो. पदका बिल्कुल सीधा सादा अर्थ है और वह है-'स्त्रियां'। पर्यस्तातिन तत्र चतुदशगुणस्थानानां सम्भव इति वहाँ द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकारकी स्त्रियोंका प्राण चेत्, न, अत्र वेदत्य प्राधान्याभावात् । गतिस्तु प्रधाना है। यदि केवल द्रव्य स्त्रियोंका ग्रहण इष्ट होता तो वीरसेन न साद्विनश्यति । वेदविशेषणायां गतौ न तान स्वामी अगले 'द्रव्यत्रीगा' पदकी तरह यहाँ भी दिव्यसम्भवन्ति, इति चेत्, न, तद्वचादेशमादधानमनुष्य- नष' पदका प्रयोग करते और जिससे सिद्धान्तविरोध गतो तत्सत्त्वाविरोधात्।'
अनिवार्य था, क्योंकि उससे द्रव्यस्त्रियों में ही सम्यग्दृष्टियोंके ___यहाँ सबसे पहले यह शंका उपस्थित की गई है कि उत्पन्न न होनेकी बात सिद्ध होती, भावस्त्रियों में नहीं। यद्यपि स्त्रियों (द्रव्य और भाव दोनों) में सम्यग्दृष्टि जीव किन्तु वे ऐसा सिद्धान्तविरुद्ध असंगत कथन कदापि नहीं मरकर उत्पन्न नहीं होते हैं। लेकिन हएडावसर्पिणी (श्राप कर सकते थे और इसी लिये उन्होंने व्यस्त्राका