________________
किरण ६-७]
६३ वें सूत्रमें 'संजद' पदका विरोध क्यों ?
२५१
विवेचन एवं प्रतिपादन किया जाता है। साथमें जो विषय- होते हैं। वे निम्न प्रकार हैं:की प्रधानताको लेकर वर्णन हो उसे सब जगह सम्बन्धित (क) जिस कालमें षट्खण्डागमकी रचना हुई उम नहीं करना चाहिये । तात्पर्य यह कि ८६ वाँ सूत्र भाववेदी कालकी-अर्थात करीब दो हजार वर्ष पूर्वको अन्त:मनुष्य द्रव्यस्त्रीको अपेक्षासे नहीं है, किन्तु भाव और द्रव्य साम्प्रदायिक स्थितिको देखना चाहिये । जहां तक ऐतिमनुष्यकी अपेक्षासे है। इसी प्रकार १० वा सूत्र भाववेदी हासिक पर्यवेक्षण किया जाता है उससे प्रतीत होता है पुरुष और द्रव्यवेदी पुरुष तथा गौणरूपसे केवल द्रव्यवेदी कि उस समय अन्त:साम्प्रदायिक स्थितिका यद्यपि जन्म पुरुषकी अपेक्षासे है और चंकि यह सूत्र पर्याप्त अवस्थाका हो चुका था परन्तु उसमें पक्ष और तीव्र हो पाई थी। है इस लिये जिस प्रकार पर्याप्त अवस्थामें द्रव्य और भाव कहा जाता है कि भगवान महावीर के निर्वाण के कुछ ही पुरुषों तथा स्त्रियोंके चौथा गुणस्थान संभव है उसी प्रकार काल बाद अनुयायिसाधुत्रोंमें थोड़ा थोड़ा मत-भेद शुरू पर्याप्त अवस्थामें द्रव्यवेदसे तथा भाववेदसे पुरुष और हो गया था और संघभेद होना प्रारम्भ हो गया था, लेकन केवल द्रव्य वेदी पुरुषके १४ गुणस्थान इस सूत्रमें वणित वीरनिर्वाणकी सातवीं सदी तक अर्थात् ईसाकी पहली किये गये हैं।
शताब्दीके प्रारम्भ तक मत-भेद और संध-भेदमें कट्टरता इस तरह पण्डितजीने द्रव्यप्रकरण सिद्ध करनेके नहीं थाई थी। अतः कुछ विचारभेदको छोड़कर प्रायः लिये जो भावप्रकरण-मान्यता प्रापत्तियां उपस्थित जैनपरम्पराकी एक ही घरा (अचेल ) उस वक्त की है उनका ऊपर सयुक्तिक परिहार हो जाता है। तक बहती चली श्रारही थी और इसलिये उस समय श्रत: पहली दलील द्रव्य-प्रकरणको नहीं साधती । और षटखण्डागमके रचयिताको षटखण्डागममें यह निबद्ध इस लिये ६३ वाँ सूत्र द्रव्यस्त्रियोंके पांच गुणस्थानोका करना या जुदे परके बतलाना आवश्यक न था कि द्रव्यविधायक न होकर भावस्त्रियोके १४ गुणस्थानोका विधायक स्त्रियों के पाँच गुणस्थान होते हैं उनके छठे आदि नहीं है। अतएस ६३ सूत्र में 'संजद' पदका विरोध नहीं है। होते । क्योंकि :.कट था कि मुक्ति अचेन अवस्थासे होती
है और द्रव्य मनुष्यनियां अचेल नहीं होती- वे सचेल ऊपर यह स्पष्ट हो चुका है कि षटखण्डागमका
ही रहती हैं। अतएव सुतगं उनके सचेल रहनेके कारण प्रस्तुत प्रकरण द्रव्य-प्रकरण नहीं है, भाव-प्रकरण है।
पांच ही गुणस्थान सुसिद्ध है। यही कारण है कि टीकाकार अब दूसरी आदि शेष दलीलोपर विचार किया जाता है।
वीरसेन स्वामीने भी यही नतीजा और हेतु-प्रतिपादन उक्त २-यद्यपि षटूखण्डागममें अन्यत्र कहीं द्रव्यस्त्रियोंके
१३ वे सूत्रकी टीकामें प्रस्तुत किये हैं और राजवार्तिककार पांच गुणस्थानोका कथन उपलब्ध नहीं होता, परन्तु इससे
अकलङ्कदेवने भी बतलाये हैं। यह सिद्ध नहीं होता कि इस कारण प्रस्तुन ६३ वां सूत्र
ज्ञात होता है कि वीर निर्वाणकी सातवीं शताब्दीके ही द्रव्यस्त्रियोंके गुणस्थानोका विधायक एवं प्रतिपादक है।
पश्चात् कुछ साधुओ द्वारा कालके दुष्प्रभाव आदिसे क्योंकि उसके लिये स्वतंत्र ही हेतु और प्रमाणोंकी जरूरत
वस्त्रग्रहणपर जोर दिया जाने लगा था, लेकिन उन्हें इसका है, जो अब तक प्राप्त नहीं है और जो प्राप्त है वे निराबाध
, समर्थन प्रागमवाक्योसे करना आवश्यक था, क्योंकि उसके और सोपपन्न नहीं है और विचारकोटिमें हैं-उन्हींपर यहाँ
बिना बहुजनसम्मत प्रचार असम्भव था। इसके लिये विचार चल रहा है। अत: प्रस्तुत दूसरी दलील ६३ वें
उन्हें एक श्रागमवाक्यका संकेत मिल गया वह था सूत्र में संजद'पदकी स्थितिकी स्वतंत्र साधक प्रमाण नहीं है।
साधुत्रोंकी २२ परिषहोंमें आया हुआ 'अचेल' शब्द । हॉ. विद्वानों के लिये यह विचारणीय अवश्य है कि इस शब्दके आधारसे अनुदरा कन्याकी तरह 'ईषद् चेलः पखण्डागममें द्रव्यस्त्रियों के पांच गुणस्थानोंका प्रतिपादन अचेल:' अल्पचेल अर्थ करके वस्त्रग्रहणका समर्थन किया क्यों उपलब्ध नहीं होता? मेरे विचारसे इसके दो समाधान और उसे श्रागमसे भी विहित बतलाया। इस समयसे ही हो सकते है और जो बहत कुछ संगत और ठीक प्रतीत वस्तुत: स्पष्ट रूपमें भगवान महावीरकी अचेल परम्पराकी