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किरण ६-७]
६३ वें सत्रमें संजद' पदका विरोध क्यों ?
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करण्डश्रावकाचार के इस श्लोकमें स्त्रीच' सामान्य (जाति) लेकिन वहाँ नमक वेदको छोड़कर अन्य कोई विशिष्ट पदका प्रयोग किया है जिसके द्वारा उन्होने यावत् स्त्रियों वेद नहीं है। अतएव निवश उसी में उत्पन्न होता है। (स्त्रीत्वावच्छिन्न द्रव्य और भाव स्त्रियों) में पैदा न होनेका परन्तु तिर्यचोंमें तो स्त्रीवेदसे विशिष्ट--उँचा दुमरा वेद स्पष्ट उल्लेख किया है । पण्डितप्रवर दौलतरामजीने प्रथम पुरुषवेद है, अतएव बदायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि पुरुषवेदी नाक बिन षट्भु ज्योतिष वान भवन सब नारी' इम तियेचोमें ही उत्पन्न होता है । यह श्राम नियम पद्य में सब" शब्द दिया है जो समस्त प्रकारकी स्त्रियोंका है कि सम्यग्दृष्टि जहां कहीं (जिस किसी गतिमें) पैदा बोधक है । यह पद्य भी जिम पंचसंग्रहादिगत प्राचीन होता है वहां विशिष्ट (सर्वोच) वेदादिकों में ही पैदा गाथाका भावानुवाद है उस गाथामें भी 'सब-इत्यं सु' होता है-उससे जघन्यमें नहीं। पाठ दिया हश्रा है। इसके अलावा, स्वामी वीरसेनने बरसेनस्वामीके इस महत्वपूर्ण समाधानसे प्रकट है पटवण्डागमके सूत्र ८८ की टीकामें सम्यग्दृष्टिकी उत्पत्तिको
कि मनुष्यगनिमें उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दृष्ट जीव द्रव्य और लेकर एक महत्वपूर्ण शंका और समाधान प्रस्तुत किया भाव दोनोंसे विशिष्ट परुषवेदमें ही उत्पन्न होगा-भावसे स्त्रीहै जो खास ध्यान देने योग्य है और जो निम्न प्रकार है:- वेद और' द्रव्यसे परुषवेदमें नहीं, क्योंकि जो द्रा और भाव
"बद्धायुष्क:क्षायिकसम्यग्दृष्टिरियेषु नपुसकवेद इवात्र दोनोंसे पुरुषवेदी है उसकी अपेक्षा नो भाषसे स्त्र वेदी और स्त्रीवेदे फिन्नपद्यते इति चेत् , न, तत्र तस्यैवै कस्य मत्वात् । द्रव्यसे पुरुपवेदी है वह हीन एवं जघन्य है--विशिष्ट यत्र कवन समुत्पद्यमानः सम्यग्दृष्टिस्तत्र विशिष्ठवेदादिपु (सर्वोच्च) वेदवाला नहीं है। द्रव्य और भाव दोनोंमे जी समुत्पद्यते इति गृह्यत म् ”
पुरुषवेदी है वही वहाँ विशिष्ट (सर्वोच्च) वेदवाला है। शंका-श्रायुका जिसने बन्ध कर लिया है ऐसा अतएव सम्यग्दृष्ट भावस्त्री विशिष्ट द्रव्य मनुष्य नहीं हो क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव जिस प्रकार नारकियोंमें नसक- सकता है और इसलिये उसके अपर्याप्त अवस्थामें चौथे वेदमें उत्पन्न होता है उसी प्रकार यहाँ तिर्यचौमें स्त्र वेदमें गुणस्थानकी कदापि संभावना नहीं है। यही कारण है कि क्यों नहीं उत्पन्न होता?
कर्ममिद्धान्तके प्रति गदक ग्रन्थोंमें अपर्याप्त अवस्थामं अर्थात् समाधान-नहीं, क्योंकि नारकियोंमें वही एक नपु
विग्रहगतिमें चतुर्थगुणस्थानमें स्त्रीवेदका उदय नहीं बतलाया सकवेद होता है, अन्य नहीं, अतएव अगत्या उमामें पैदा
गया है। सासादन गुणस्थानमें ही उसकी व्युच्छित्ति होना पड़ता है। यदि वहां नपुंमकवेद मे विशिष्ट-ऊँचा
बनला दी गई हैं, (देखो, कर्मकाण्ड गा०३१२-३१३-३१६)। (बढ़कर) कोई दूसरा वेद होता तो उसी में वह पैदा होता.
तात्पर्य यह कि अपर्याप्त अवस्थामें द्रव्यस्त्रीकी तरह
भावस्त्रीमात्रके भी चौथा गुणस्थान नहीं होता है। इमीसे १ 'पंढ' शब्दका संशोधन ठीक नहीं है। प्रो० प्रतियों में सूत्र काग्ने द्रव्य और भाव दोनों तरहकी मनुष्यनियों के 'सब' शब्द ही उपलब्ध होता है। यथा
अपर्याप्त अवस्था में पहला, दुमराये दो हगुगास्थान बतलाये छसु हेछिमासु पुढविसु जोइम-वण-भवण-सव्वाय'सु । हैं उनमें चौधा गुणस्थान बतलाना सिद्धान्तावरुद्ध होने के वारस मिच्छोवादे सम्माहिस्स णस्थि उववादो ॥ कारण उन्हें इष्ट नहीं था। अत: ६२वें सूत्रको वर्तमान
-पंचसं०१-१६३। स्थिति में कोई भी आपत्ति नहीं है। पण्डनजीने अपनी छसु हेट्रिमासु पढवीसु जोहस-पण-ववण-सव्वइत्यीसु। उपयुक मान्यताको जैनबोधक ६१वें अंकमें भी दुहराते हए णेदेसु सपुषजा सम्माइट्ठी दु जो जीवो ॥ लिया है:- "यदि यह ६२ वा सूत्र भावस्त्रीका विधायक
-धवला मु. १ ली पु०पृ० २०६ । होता तो अपर्याप्त अवस्थामें भी तीन गुण स्थान होने चाहिये। हेछिमछा-पुढवीणं जोइसि-वण-भवण सव्वइत्यीणं । क्योंकि भावस्त्री (द्रव्यमनुष्य) के असंयत सम्यग्दृष्टि चौथा पुरिणदरे ण हि सम्मो ण सासणे णारयापुणो ॥ गुणस्थान भी होता है।" परन्तु उपरोक्त विवेचनसे प्रकट है
-गोम्मटसार जीवकाँड गा० १२७। कि पण्डिनजीकी यह मान्यता प्रापत्ति एवं भ्रमपूर्ण है।
नारकियोम वहादा
तादी गई है, (
अवस्थाम