________________
३ वें सूत्रमें 'संजद' पदका विरोध क्यों ? (ले०-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया)
- -
'षट्खण्डागम' के उल्लिखित ६३ वें सूत्र में संजद' है। उन्होंने मनुष्यगतिसम्बन्धी उन पाँचों ही-८६,६.. पद हे या नहीं ? इस विषयको लेकर काफी अरसंसे चर्चा ६१, ६२ ६३--सूत्रोंको द्रव्य-प्ररूपक बतलाया है। परन्तु चल रही है। कुछ विद्वान् उक्त सूत्रमें 'संजद' पदकी हमें अब भी ऐसा जग भी कोई स्रोत नहीं मिलता, जिमसे अस्थिति बतलाते हैं और उसके समर्थनमें कहते है कि उसे 'द्रव्यका ही प्रकरण' समझा जा सके। हम उन प्रथम तो वहाँ द्रव्यका प्रकरण है, अत एव वहाँ द्रव्य- पाँचों सूत्रोको उत्थानिका-वाक्य सहित नीचे देते है:स्त्रियों के पाँच गुणस्थानोंका ही निरूपण है। दूसरे, "मनुष्यगतिप्रतिपादनार्थमाइषटखण्डागममें और कहीं आगे-पीछे द्रव्यस्त्रियों के पाँच मणुस्सा मिच्छाइट्रि-सासणसम्माइट्ठि-अमंजदगुणस्थानोंका कथन उपलब्ध नहीं होता । तीसरे, वहाँ सम्माइट्रि-द्वाणे सिया पज्जत्ता सिया अपजत्ता 1156) सूत्रमें 'पर्याप्त' शब्दका प्रयोग हे जो द्रव्यस्त्रीका ही बोधक
तत्र शेषगुणस्थानसत्त्वावस्थाप्रतिपादनार्थमाइहै। चौथे, वीरसेनस्वामीकी टीका उक्त सूत्र में संजद' पदका
सम्मामिच्छाइटि-संजदासंजद-संजद-ट्ठाणे पियमा समर्थन नहीं करती, अन्यथा टीकामें उक्त पदका उल्लेख
पज्जता ||६|| अवश्य । होता पाँचवें, यदि प्रस्तुत सूत्रको द्रव्यस्त्री के गुग्यस्थानोंका प्ररूपक-विधायक न माना जाय और चूंकि
मनुष्यविशेषस्य निरूपणार्थमाहषटखण्डागममें ऐसा और कोई स्वतंत्र सूत्र है नहीं जो एवं मणुस्सपज्जत्ता ॥६॥ द्रव्यस्त्रियोंके पाँच गुणस्थानोंका विधान करता हो, तो मानुषीषु निरूपणार्थमाहदिगम्बर परम्पगके इस प्राचीनतम सिद्धान्त ग्रन्थ षटखण्डा
मणुसिणोसु मिच्छाइ द्वि-सासणसम्माइटि-हाणे गमसे द्रव्य स्त्रियों के पांच गुणस्थान सिद्ध नहीं हो सकेंगे सियाजत्तियामा सिया अपजत्तियामो ॥२॥ और जो प्रो. हीरालाल जी कह रहे हैं उसका तथा श्वेताम्बर
तत्रैव शेषगुणविषयाऽऽरकापोहनार्थमाहमान्यताका अनुषंग श्रावेगा। अत: प्रस्तुत ६३ वे सूत्रको
___सम्मामिच्छाइटि-असंजदसम्माइट-संजदासंजद - 'संजद' पदसे रहित मानना चाहिये और उसे द्रव्यस्त्रियोंके
संजद-ट्ठाणे णियमा पत्तियानो ॥६॥ पाँच गुणास्थानोंका विधायक समझना चाहिये।
-धवला मु० पृ. ३२६-३३२। उक्त दलीलोंपर विचार
ऊपर उद्धृत हुए मूलसूत्रों और उनके उत्थानिका
वाक्योंसे यह जाना जाता है कि पहल' (८८) और दूसरा १-पटखण्डागमके इस प्रकरणको जब हम गौरसे (६०) ये दो सूत्र तो सामान्यत: मनुष्यगति--पर्याप्त कादिक देखते हैं तो वह द्रव्यका प्रकरण प्रतीत नहीं होता। मेदसे रहित (अविशेषरूपसे) सामान्य मनुष्य--के प्रतिपादक मूलग्रन्थ और उसकी टीकामें ऐसा कोई उल्लेख अथवा हैं। और प्रधानताको लिये हुए वर्णन करते हैं। श्राचार्य संकेत उपलब्ध नहीं है जो वहाँ द्रव्यका प्रकरण सूचित वीरसेनस्वामी भी यही स्वीकार करते हैं और इसीलिये करता हो। विद्वदर्य पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने हालमें वे 'मनुष्यगतिप्रतिपादनार्थमाह' (८६) तथा 'तत्र (मनुष्य'जैनबोधक' वर्ष ६२, अंक १७ और १९ में अपने दो गतौ) शेषगुए स्थानसक्तवस्थाप्रतिपादनार्थमाह' (६०) लेखो द्वारा द्रव्यका प्रकरण सिद्ध करनेका प्रयत्न किया इसप्रकार सामान्यतया ही इन सूत्रों के मनुष्यगतिसम्बन्धी