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अनेकान्त
उत्थानिकावाक्य रचते हैं। इसके अतिरिक्त, श्रगले सूत्रोंके उत्थानिक वाक्यों में वे 'मनुष्यविशेष' पदका प्रयोग करते हैं जो खास तौर से ध्यान देने योग्य है और जिससे विदित हो जाता है कि पहले दो सूत्र तो सामान्य मनुष्य के प्ररूपक हैं और उनसे अगले तीनों सूत्र मनुष्यविशेषके प्ररूपक हैं । श्रतएव ये दो (८६, ६०) सूत्र सामान्यतया मनुष्यगतिके ही प्रतिपादक हैं, यह निर्विवाद है और यह कहनेकी ज़रूरत नहीं कि सामान्य कथन भी इष्ट विशेष में निहित होता है— सामान्यके सभी विशेषों में या जिस किसी विशेष में नहीं। तालर्य यह कि उक्त सूत्रों का निरूपण संभवताकी प्रधानताको लेकर है ।
तीसरा (६१), चौथा (६२), और पांचवाँ (६३) ये तीन सूत्र श्रवश्य मनुष्यविशेष के निरूपक है— मनुष्योक चार भेदों (सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्यात, मनुष्यनी और अपर्याप्त मनुष्य ) मेंसे दो भेदों— मनुष्यपर्यात और मनुष्यनी के निरूपक हैं। और जैसा कि उपर कहा जा चुका है कि वीरसेन स्वामीके 'मनुष्यविशेषस्य निरूपणार्थमाह', 'मानुषं पु निरूपणार्थमाह' और 'तत्रैव (मानुषीष्वेव) शेषगुणविषयऽऽरेको पद्दनार्थमाह' इन उत्थानिकावाक्योंसे भी प्रकट है। पर, द्रव्य श्रौर भावका भेद वहाँ भी नहीं हैद्रव्य और भावका भेद किये बिना ही मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यणीका निरूपण है। यदि उक्त सूत्रों या उत्थानिका वाक्योंमें 'द्रव्यपर्याप्तमनुष्य' और 'द्रव्यमनुष्यणी' जैसा पद प्रयोग हंता अथवा टीका में ही वैसा कुछ कथन होना, तो निश्चय ही 'द्रव्यप्रकरण' स्वीकार कर लिया जाता। परन्तु हम देखते हैं कि वहां वैसा कुछ नहीं है । अत: यह मानना होगा कि उक्त सूत्रोंमें द्रव्यप्रकरण इष्ट नहीं है और इस लिये ६३ वै सूत्रमें द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानोंका वहाँ विधान नहीं है, बल्कि सामान्यत: निरूपण है और पारिशेष्यन्याय से भावापेक्षया निरूपण वहाँ सूत्रकार और टीकाकार दोनोंको इष्ट है और इस लिये भाव लिङ्गको लेकर मनुष्यनियोंमें १४ गुणस्थानोका विवेचन समझना चाहिये । श्रतएव ६३ वे सूत्रमें 'संजद' पदका प्रयोग न तो विरुद्ध है और न श्रनुचित है। सूत्रकार और टीकाकारकी प्ररूपणशैली उसके अस्तित्वको स्वीकार करती है ।
[ वर्ष
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यहां हम यह श्रावश्यक समझते हैं कि पं० मक्खन लालजी शास्त्रीने जो यहाँ द्रव्यप्रकरण होनेपर जोर दिया है और उसके न माननेमें जो कुछ प्रक्षेप एवं आपत्तियां प्रस्तुत की हैं उनपर भी विचार कर लिया जाय । श्रतः नीचे 'श्राक्षेप परिहार' उपशीर्षक के साथ विचार किया जाता है ।
प्रक्षेप - परिहार
अक्षे-यदि ६२ वां सूत्र भारस्त्रीका विधायक माना जाय - द्रव्यस्त्र का नहीं, तो पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान होना आवश्यक है क्योंकि भावस्त्री माननेपर द्रव्यमनुष्य मानना होगा। और द्रव्य मनुष्यके चौथा गुणस्थान भी अपर्याप्त अवस्था में हो सकता है। परन्तु इस सूत्र में चौथा गुणस्थान नहीं बनाया है केवल दो ही (पहला और दूसरा ) गुणस्थान बताये गये हैं । इससे बहुत स्पष्ट हो जाता है कि यह ६२ वां सूत्र द्रव्यस्त्रीका ही निरूपक है ?
परिहार- पण्डितजीकी मान्यता ऐसी प्रतीत होती है कि भाव स्त्रीविशिष्ट द्रव्यमनुष्य के अपर्याप्त अवस्था में चौथा गुणस्थान होता है अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव मर कर भावस्त्रीविशिष्ट द्रव्यमनुष्य होसकता है और इस लिये ६३ वें सूत्रकी तरह ६२ वे सूत्रको भावस्त्रीका निरूपण करनेवाला माननेवर सूत्रमें पहला, दूसरा और चौथा इन तीन गुणस्थानोंको बताना चाहिये था, केवल पहले व दूसरे इन दो ही गुणस्थानोंको नही ? इसका उत्तर यद है कि सम्यग्दृष्टि जीव, जो द्रव्य श्रौर भाव दोनोंसे मनुष्य होगा उसमें पैदा होता है— भावसे स्त्री और द्रव्यसे मनुष्य में नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव समस्त प्रकारकी स्त्रियोंमें पैदा नहीं होता । जैसा पण्डितजीने समझा है, अधिकांश लोग भी यही समझते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव द्रव्य स्त्रियों - देव, तिर्येच श्रौर मनुष्यद्रव्यस्त्रियोंमें ही पैदा नहीं होता, भावस्त्रियों में तो पैदा हो सकता है । लेकिन यह बात नहीं है, वह न द्रव्यस्त्रियोंमें पैदा होता है और न भावस्त्रियों में । सम्यग्दृष्टिको समस्त प्रकारकी स्त्रियों में पैदा न होनेका ही प्रतिपादन शास्त्रोंमें है । स्वामी समन्तभद्रने 'सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकनपुंसकस्त्रोत्वानि' रत्न