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कि ण ६-७]
समन्तभद्र-भारती के कुछ नमूने
(या. यह कहा जाय कि 'जो सत है व पब स्वभावये ही क्षणिक है, जैसे शहर और विद्युा अति अरना श्रारला भी कि पत् है अत: वह भी स्वभावणे क्षणक है, और ५४ स्वभावहेतु ही उसका ज्ञाक है, तं. इन प्रकार के अनुमान पर ऐसा करने अथवा अनुमान लगानेपर - यद :श्न पैदा होता है कि वह हेतु स्वयं प्रातपत्ता (ज्ञाता) के द्वारा दृष्ट (रेवा ग ।) है या अदृष्ट (नहीं देखा गया अर्थात कल्पनारोपित) है? दृष्टहेतु संभव न हो सकता; क्यों के सब कुछ कि होने के कारण दर्शनके अनन्तर ही उसका विनाश हो जानेसे अनुमानकाल में भी उपका श्रभाव होता है। साथ ही, चित्तविशेपके लिङ्गदर्शी उस अनुमाताका भी संभव नहीं रहता । इसी तरह कल्पनारंचित (कालात) अदृष्ट हेतु भी नहीं बनता; क्योंकि उस कल्पनाका भी तक्षण विनाश होजाने अनुमानक लमें मग व नहीं रहता।)
(या. य कला जाय कि व्याप्तिके ग्रहण काल में लिङ्गदर्शनकी जो कल्पना उत्पन्न हुई थी उसके तण विनाश हो जानेपर भी उसकी वासना (संस्कार) बनी रहती है अत: अनुमानकालमें लिङ्गदर्शन प्रबुद्ध हुई उस वासनाके सामर्धमे अनुमान वृत्त होता ही है, तो ऐसा कहना युक्र नहीं है, क्योंकि) मा भन्न (चित्त) -हेतु(साधन)
और हेतुमद् (माय) के विनाभाव-सम्वन्धरूप व्याप्तिके ग्राहक चित्तमे अनुमाताका चित्त (सन्तानतः भिन्नकी तरह) भिन्न पन्नान होने पे उसमें-वासनाका अस्तित्व नही बन सकता -यदि भिन्न सन्तानवालेके वासनाका अस्तिव माना जाय तो भित्रपन्नान देव, त्त-द्वारा साध्य-पाधनकी व्यतिका ग्रहण होनेपर जिनदत्तके (व्याप्तिका ग्रहण न होने पर भी) साधनको देखने मात्र पाध्यके अनुमानका प्रसंग अाएगा; कयोंकि दोनोंमें कोई विशेस्ता नहीं है। श्रीरका बान संभव नहीं हो सकती; क्यों के व्यासिके ग्रहण विना अनुमान प्रवर्तित नहीं हो सकता)।'
आधुनिक भाषाओंकी व्युत्पत्तिके लिये जैनसाहित्यका महत्व
(ले० - बा. ज्योतिषसाद जैन, एम. ए.)
-MOKगुजराती पत्र 'श्री जैन सत्यप्रकाश' (वर्प १२ किन्तु इम शब्द । संस्कृत म्हप एक प्राचीन जैन अंक १) में प्रो० मूलराजजीका एक संक्षिप्त लेख 'दो ग्रन्थ 'वृहनकथाकोप' में उपलब्ध होता है । इम १८होंकी व्युत्पत्ति' शीपकसे प्रकाशित हुया है। उसम ग्रन के चिगिता दिगम्बगचाय हरिपेगा थे और प्रकट होता है कि जैन साहित्यका अध्ययन भारतनपे उन्होंने इस प्रन्थकी रचना विक्रम संवन ८६ (सन की अध नक लोकभापायों की व्युत्पत्तकी जानकायके १३२ ई.) में की थी। यह ग्रन्थ अब प्रमिद्ध प्राच्य लिये भा उपयोगी एवं आवश्यक है।
भषाविज्ञ डा. ए. एन. उपाध्ये द्वारा संपादित होकर ___पंजाब प्रान्त में प्रचलित लोकभाषाका एक शब्द सिबी जेन ग्रंथमाला के बन्नेगत, भारतीय विद्याभवन है 'कुड़', जिसका अर्थ है कन्या, लड़की अथवा पुत्री। बम्बई से प्रकाशित हो चुका है । उक्त कथाकोषकी यह शब्द अपने इस प्रकृतरूपमें अथवा किसी रूपान्तर कथा न० ३० (पृ० ५०) का शीर्षक 'मृतक संगे नष्ट को लिये हुए अन्य किसी प्रान्तीय भाषा में नहीं मिलता माना कथानकम' है। इस कथामें लड़कीके अर्थोमें सांकृत प्राकृत आदि भषाओं में भी अभी तक ऐसा 'कुटिकां' शब्दका प्रयोग हुआ है* । फुटनोट तथा कोई शब्द जानने में नहीं आया जिससे कुड़ी', शब्दकी भूमिका पृ० १०३ पर दिये हुए विशेषशब्दार्थकोषमें व्युत्पत्ति की जासके।
* वृहत्कथाकप, कया नं० ३०, श्लोक ८-६ ।