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अनेकान्त
विर्ष ८
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कारकादिरूप जो विविध अर्थ हैं उन्हें बालक तक भी स्वीकार करते हैं इसलिये वे सिद्ध हैं और उनका इस प्रकारसे सिद्ध होना ही स्वभाव है तो यह वादान्तर हुअा; परन्तु यह वादान्तर भी (हे वीर भगवन ! ) आपक द्वेषियों के यहाँ बनता कहाँ है ?-क्योंकि वह प्रावाल-सिद्धिसे होनेवाली निणीति नित्यादि सर्वथा एकान्तवादका श्राश्रय लेने पर नहीं बन सकती, जिससे सब पदार्थो सब कार्यों और सब कारणोंकी सिद्धि होती। कारण यह कि वह निीति अनित्य होती है और विना विक्रियाके बनती नहीं, इसलिये सर्वथा नित्य-एकान्तके साथ घटित नहीं हो सकती । प्रत्यक्षादि प्रमाणसे किसी पदार्थकी सिद्धिके न हो सकनेपर दूसरों के पूछने अथवा दूपणार्थ जिज्ञासा करनेपर स्वभाववादका श्रवलम्बन ले लेना युक्र नहीं है; क्योंकि इससे अतिप्रसंग अाता है-प्रकृतसे अन्यत्र बिपक्षमें भी यह घटित होता हैसर्वथा अनित्य अथवा क्षणिक-एकान्तको सिद्ध करने के लिये भी स्वभाव-एकान्तका अवलम्बन लिया जा सकता है। और यदि यह कहा जाय कि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंकी सामर्थ्यसे विविधार्थकी सिन्द्विरूप स्वभाव है तो फिर स्वभाव-एकान्तवाद कैसे सिद्ध हो सकता है? क्योंकि स्वभावकी तो स्वभावसे ही व्यवस्थिति है उसको प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके बलसे व्यवस्थापित करनेपर स्वभाव-एकान्त स्थिर नहीं रहता। इस तरह हे वीर जिन ! आपके अनेकान्तशासनसे विरोध रखने वाले मर्वथा एकान्तवादियोंके यहाँ कोई भी वादान्तर (एकके साथ दूसरा वाद ) ८.न नहीं सकता-वादान्तर तो सम्यक एकान्तके रूपमें आपके मित्रों-सपक्षियों अथवा अनेकान्तवादियोंके यहाँ ही घटित ता है।
येपामवक्तव्यमिहाऽऽत्म-तत्वं देहादनन्यत्व-पृथक्त्व-क्लप्तेः ।
तेपां ज्ञ-तत्त्वेऽनवधार्यतच्चे का बन्ध-मोक्ष-स्थितिरप्रमेये ॥ १० ॥ नित्य अत्मा देहमे (सर्वथा) अभिन्न है या भिन्न इस कल्पनाके होनेसे (श्री अभिरनव तथा भिनव दोनामसे किसी एक भी विकल्पके निर्दोष सिद्ध न हो सकनेसे) जिन्होंने प्रात्म-त्वको 'श्रवक्तव्य'-वचनके अगोचर अथवा अनिर्वचनीय-माना है उनके मतमें आत्मतत्त्व अनवधार्य (अज्ञेय) तत्त्व हो जाता है-प्रमेय नहीं रहता। और आत्मतत्त्वके अनवधाये होनेपर-प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाग का विषय न रहनेपर-बन्ध और मोक्षकी कौनसी स्थिति बन सकती हे ? बन्ध्या-पुत्रकी तरह कोई भी स्थिति नहीं बन सकती-न बन्ध व्यवस्थित होता है और न मोक्ष । और इसलिये बन्ध-मोक्षकी सारी चर्चा व्यर्थ ठहरती है।'
हेतुर्न दृष्टोऽत्र न चाऽप्यदृष्टो योऽयं प्रवादः क्षणिकाऽऽत्मवादः ।
'न ध्वस्तमन्यत्र भरे द्विताये' सन्तानभिन्न न हि वासनाऽस्ति ॥ ११ ॥ 'प्रथम क्षणमें नष्ट हुया चित्त-आत्मा दृमरे क्षण में विद्यमान नहीं रहता' यह जो (बौद्धोंका) क्षणिकात्मवाद है वह (केवल) प्रवाद है-प्रमाणशून्य वाद होनेसे प्रलापमात्र है; क्योंकि इसका ज्ञापकअनुमान करानेवाला-कोई भी दृष्ट या अदृष्टहेतु नहीं बनता। देहसे श्रात्माको सर्वथा अभिन्न माननेपर संसारके अभावका प्रसंग श्राता है; क्योंकि देह-रूपादिककी तरह देदात्मक श्रात्माका भवान्तर-गमन तब बन नहीं सकता और इसलिये उसी भवमें उसका विनाश ठहरता है, विनाशका नित्यत्वके साथ विरोध होनेसे श्रात्मा नित्य नहीं रहता और चार्वाकमतके श्राश्रयका प्रसंग अता है, जो प्रात्मतत्त्वको भिन्नतत्त्व न मानकर पृथिवी आदि भूतचतुष्कका ही विकार अथवा कार्य मानता है और जो प्रमाण-विरुद्ध है तथा आत्मतत्ववादियोंको इष्ट नहीं है । और देहसे आत्माको सर्वथा भिन्न माननेपर देहके उपकार-अपकार से श्रात्माके सुख-दुःख नहीं बनते, सुख-दुःखका अभाव होनेपर राग-द्वेष नहीं बन सकते और राग-द्वेषके अभावमें धर्म-अधर्म संभव नहीं हो सकते। अत: 'स्वदेहमें अनुरागका सद्भाव होनेसे उसके उपकार-अपकारके द्वारा आत्माके सुख-दुःख उसी तरह उत्पन्न होते हैं जिस तरह स्वगृहादिके उपकार-अपकारसे उत्पन्न होते हैं। यह बात कैसे बन सकता है ? नहीं बन सकती। इस तरह दोनों ही विकल्प सदोष ठहरते हैं ।