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किरण ६-७]
समन्तभद्र भारती के कुछ नमूने
भायेषु नित्येषु विकारहानेनं कारक-व्यापृत-काय-युक्तिः ।
न बन्ध-भागो न च तद्विमोक्षः समन्तदोपं मतमन्यदीयम् ॥ ८॥ 'सत्तात्मक पदार्थोंको-दिक-काल-श्राकाश-छात्माको, पृथिव्यादि परमाणु-द्रव्योंको, परम-महत्वादि गुणों को तथा सामान्य-विशेष-समवायको-(सर्वथा) नित्य माननेपर उनमें विकारकी हानि होती-कोई भी प्रकारकी विक्रिया नहीं बन सकती-विका की हानिम कादि कारकोंका (जो क्रियाविशिष्ट द्रव्य प्रसिद्ध हैं) व्य पार नहीं बन मकता, कारक-व्यापारके अभ वमें (द्रव्य-गुण-कर्मरूप) कार्य नहीं बन सका, और कार्य फ अभावमें (कार्यझिङ्गात्मक अनुमानरूप तथा योग-सन्बन्ध-संसर्गरूप) युक्ति घटित नहीं हो सकती । युक्तिके प्रभावमें बन्ध तथा (बन्ध-फलानुभवनरूप) भोग दोनों नहीं बन सकते और न उनका विमोक्षही बन सकता हैक्योंकि विमोक्ष बन्धपूर्वक ही होता है. बन्धके अभावमें मोक्ष कैसा ? इस तरह पूर्व पूर्वके अभावमें उत्तरोत्तरकी व्यवस्था न बन सकनेसे संपूर्ण भावात्मक पदार्थोंकी हानि ठहरती है-किसीकी भी व्यवस्था नहीं बन सकती । और जब भावात्मक पदार्थ ही व्यवस्थित नहीं होते तब प्राम्भाव-प्रध्वंसाऽभावादि अभावामक पदार्थोकी व्यवस्था तो कैसे बन सकती है ? क्योंकि वे भावामक पदार्थों के विशेषण होते हैं, स्वतंत्ररूपसे उनकी कोई सत्ता ही नहीं है । अतः (हे वीरजिन !) आपके मतसे भिन्न दसर्गका-सर्वथा एकानावादी वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक तथा सांग्य आदिका -मत (शासन) सब प्रकासे दोषरूप है-देश-काल और पुरुप विशेषकी अपेक्षाने भी प्रत्यक्ष अनुमान तधा भागम-गम्य सभी स्थानों में बाधित है।'
अहेतुकत्व-प्रथितः स्वभावस्तस्मिन् क्रिया-काग्क-विभ्रमः स्यात् ।
आचाल-मिद्धर्विविधार्थ-मिद्धिादान्तरं कि तदसूयतां ते ॥ ६ ॥ '(यदि यह कहा जाय कि प्रामानिनिय दल्यो स्वभादसे ही विकार सिद्ध है अत: कारकव्यापार, कार्य श्रीर कार्ययुनि. सब ठीक घटित होते हैं और इस तरह सकल दोप असंभव ठहरते हैं-कोई भी दोषापत्ति नहीं बन सकती; तब यह प्रश्न पैदा होता है कि वह स्वभाव बिना किसी हेतुके ही प्रथित (प्रसिद्ध) है अथवा आबाल-सिद्धिये विविधार्थसिद्धि के रूपमें प्रथित है ? उत्तरमें) यद यह कहा जाय कि नित्य पदार्थों में विकारी होने का स्वभाव विना किसी हेतुके ही प्रथित है तो ऐसी दशामें क्रिया और कारकका विभ्रम ठहरता है- स्वभावले ही पदार्थोंका ज्ञान तथा प्राविर्भाव होनेसे ज्ञप्ति तथा उत्पत्तिरूप जो प्रतीयमान किया है उसके भ्रान्तिरूप हानेका प्रसंग श्राता है, अन्यथा स्वभावके निहें तुकत्वकी सिद्धि नहीं बनती। और क्रिया के विभ्रमसे प्रतिभाममान कारक समूह भी विभ्रमरूप हो जाता है; क्योंकि क्रिशविशिष्ट व्यका नाम कारक प्रसिद्ध है, क्रियासे कारककी उत्पत्ति नहीं । और स्वभाववादीके द्वारा क्रिया कारकका विभ्रम मान्य नहीं किया जा सकता--विभ्रमकी मान्यतापर बादान्तरका प्रसंग पाता है-सर्वथा स्वभाववाद स्थिर न रहकर एक नया विभ्रमवाद और खड़ा हो जाता है। परन्तु (हे वीरजिन !) क्या प्रा. -आपके स्थाद्वाक्ष-शासनसे-द्वेष रखनेवाले के यहाँ यह वादातर बनता है ?-नहीं बनता; क्योंकि सब दुछ विभ्रम है' ऐसा एकान्तरूप वादान्तर स्वीकार करनेपर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उस विभ्रममें ध्रुविभ्रम-अभ्रान्ति है या वह भी विभ्रम-भ्रान्तिरूप है ? यदि अविभ्रम है तो विभ्रम-एकान्त न रहा-अविभ्रम भी कोई पदार्थ ठहरा । और यदि विभ्रममें भी विभ्रम है तो सर्वत्र अभ्रान्तिको सिद्धि हुई; क्योंकि विभ्रममें विभ्रम होनेसे वास्तविक स्वरूपकी प्रतिष्टा होती है। और ऐसी हालतमें स्वभावके निर्हेतुकम्पकी सिद्धि नहीं हो सकती।'
'यदि यह कहा जाय कि (बिना किसी हेतुके नहीं किन्तु) भाषालसिद्धिरूप हेतुसे विविधार्थक-सर्वथा नित्य पदार्थों में विक्रिया तथा कारक ज्यापारादिकी-सिद्धिके रूप में स्वभाव प्रथित (प्रसिद) है-अर्थात् क्रिया