________________
२३.
अनेकान्त
[वर्ष ८
पात्र 'अग्निदयित' को एक यतलाकर यह कहा जाता है परिवर्तनादिका यह कार्य किसी बादके प्रतिलेखक द्वारा संभव
और श्राम तौरपर माना जाता है कि यह कार्तिकवानुप्रेक्षा मालूम नहीं होता, बल्कि कुमारने ही जान या अनजानमें उन्हीं स्वामी कार्तिकेयकी बनाई हुई है जो क्रौंच राजाके जोइन्दुके दोहेका अनुसरण किया है ऐसा जान पड़ता है। उपसर्गको समभावसे सहकर देवलोक पधारे थे, और इस- उन दोहा और गाथा इस प्रकार हैं:-- लिये इस ग्रंथका रचनाकाल भगवतीप्राराधना तथा श्री विरला जाणहिं तत्तु बहु विरला णिसुणहि तत्तु । कुन्दकुन्द के ग्रंथोंसे भी पहलेका है -भले ही इस ग्रन्थ तथा विरला झायहिं तत्त जिय विरला धारहितत्त ॥६॥ भ० ग्राराधनाकी उन गाथामें कार्तिकेयका स्पष्ट नामोल्लेख
-योगसार न हो और म कथामें इनकी इस ग्रन्थरचनाका ही कोई विरला णिमुणहि तच्चं बिरला जाणंति तच्चदो तचं । उल्लेख हो।
विरला भावहि तचं विरलाणं धारणा होदि ॥३७६।। पन्तु डाफ्टर ए. एन. उपाध्ये एम. ए. कोल्हापुर इस
--कार्तिकेयानुप्रेक्षा मतसे सहमत नहीं है। यद्यपि वे अभीतक इस ग्रन्यके और इसलिये ऐसी स्थितिमें डा. साहबका यह मत कर्ता और उसके निर्माणकालके सम्बन्धमें अपना कोई है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा उन कुन्दकुन्दादिके बादकी ही नहीं निश्चित एक मत स्थिर नहीं कर सके फिर भी उनका इतना बल्कि परमात्मप्रकाश तथा योगसारके कर्ता योगीन्दु प्राचार्य के कहना स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ उतना (विकमसे दोसो या तीनसी भी बाद की बनी हुई है, जिनका समय उन्होंने पूज्यपादके वर्ष पहलेकाx) प्राचीन नहीं हैं जितना कि दन्तकथाओं के समाधितंत्रसे बादका श्रीर चण्ड व्याकरणसे पूर्वका अर्थात आधारपर मानाजाता है. जिन्होंने ग्रन्थकार कुमारके व्यकि- ईसाकी ५ वीं और ७ वीं शताब्दीके मध्यका निर्धारित किया स्खको अन्धकारमें डाल दिया है। और इसके मुख्य दो है; क्योंकि परमाग्मप्रकाशमें समाधितंत्रका बहुत कुछ अनुकारण दिये है, जिनका सार इस प्रकार है:
सरण किया गया है और चण्ड-व्याकरणमें परमात्मप्रकाशके (8) कुमारके इस अनुपेक्षा ग्रंथमें बारह भावनाओंकी प्रथम अधिकारका ८५ वां दोहा (कालु नहे विणु जोइया' गणनाका जो क्रम स्वीकृत है वह वह नहीं है जो कि इत्यादि) उदाहरण के रूप में : बहकर, शिवार्य और कुन्द न्कके ग्रन्थों (मूलाचार, भ. इसमें सन्देह नहीं कि मूलाचार भगवतीयाराधना आराधना तथा बारसअणुपेक्खा) में पाया जाता है, बल्कि और बारसअणुवेक्खामें बारह भावनाओंका क्रम एक है, उससे कछ भिन्न वह क्रम है जो बादको उमास्वातिके इतना ही नहीं बक्षिक इन भावनाओंके माम तथा क्रमकी तत्त्वार्यसूत्रमें उपलब्ध होता है।
प्रतिपादक गाथा भी एक ही है. और यह एक खास विशे(२) कुमारकी यह अनुप्रेक्षा अपभ्रंश माषामें नहीं पता है जो गाथा तथा उसमें वर्णित भावनाओंके क्रमकी लिखी गई: फिर भी इसकी २७६ वी गाथामें 'णिसुणहि' अधिक प्राचीनताको सूचित करती है। वह गाथा इस
और 'भावहि' (prefer by हिं) ये अपभ्रंशके दोपद प्रकार है :प्राघुसे हैं जो कि वर्तमान काल तृतीय पुरुषके वहु बचनके अद्धवमसरणमेगत्तमरण-संसार-लोगमसुषितं । रूप है। यह गाथा जोइन्दु (योगीन्दु) के योगसारके ६५ वें भासव-संबर-णिज्जर-धम्मं वोहि व चिंति
वह पाचातात जो॥ दोहेके साथ मिलती जुलती है, एक ही श्राशयको लिये उमास्वातिके तत्वार्थसूत्रमें इन भावनाओंका क्रम हए है और उन दोहेपरसे परिवर्तित करके रक्खी गई है। एक स्थानपर ही नहीं बल्कि तीन स्थानोंपर x पं. पन्नालाल वाकलीवालकी प्रस्तावना पृ०
विभिन है। उसमें अशरणके अनन्तर एकत्वCatalogue of Sk. and Pk. Manus
अन्यत्व भावनाओंको न देकर संसारभावनाको दिया है cripts in the C. P. and Berar P. XIV; .
v. और संसारभावनाके अनन्तर एकत्व-अन्यत्व भावनाको तथा Winternitz, A history of Indian * परमात्मप्रकाशकी अंग्रेजीप्रस्तावना पृ. ६४-६७ Literature, Vol. II, P. 577.
तथा प्रस्तावनाका हिन्दीसार पृ० ११३-११५,