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किरण ६..]
प्रन्थ और ग्रन्थकार
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जिसके छह मुम्ब और १२ भुजाएँ तथा १२ नेत्र बतलाए जाते सहन करने वाले सन्तजनोंके कुछ उदाहरगा प्रस्तुत किये हैं, हैं। और जो इसीसे शिवपुत्र, अग्निपुत्र, गंगापुत्र तथा जिनमें एक उदाहरण कार्तिकेय मुनिका भी निम्नाकर है:कृतिका श्रादिका पुत्र कहा जाता है। कुमार के इस कार्तिकेय "स्वामिकार्तिकेयमुनिः क्रौंचराज - कृतोपसर्ग अर्थको लेकर ही यह ग्रंथ स्वामी कार्तिकेयकृत कहा जाता सोद्वा साम्यपरिगामेन समाधिमरणेन देवलोकं है तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा और स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा जैसे प्र.प्य: (H:१)" नामों से इसकी सर्वत्र प्रसिद्धि है। परन्तु ग्रन्थभरमें कभी इसमें लिखा है कि 'स्वामिकार्तिकेय मुनि क्रींचराजकृत ग्रन्थकारका नाम कार्तिकेय नहीं दिया और न ग्रन्थको उपसर्गको समभावसे सहकर समाधिपूर्वक मरण के द्वारा कार्तिकेयानुप्रेक्षा अथवा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा जैसे नामस्से देवलोकको प्राप्त हुए। उल्लेखित ही किया है। प्रत्युत इसके, ग्रन्थके प्रतिज्ञा और तखार्थराजवातिकादि ग्रन्थों में 'अनुत्तरोपपादंदशांग' का समाप्ति-वाक्योंमें ग्रन्थका नाम सामान्यत: 'अगुपेहानो' वर्णन करते हुए, वर्द्धमानतीशंकरके तीर्थ में दारुण उपसर्गोंको (अनुप्रेक्षा) और विशेषत: 'बारसअणुवेषग्वा' (द्वादशानुप्रेक्षा) सत्कर विजयादिक अनुत्तर विमानों (देवलोक) में उत्पन्न होने दिया है* । कुन्दकुन्द के इस विषय के ग्रन्थका नाम भी वारस वाले दम अनगार साधुओंके नाम दिये हैं, उनमें कार्तिक अथवा अगुपेक्वा' है। तब कार्तिकेयानुप्रेक्षा यह नाम किसने और कार्तिकेयका भी एक नाम है। परन्तु किसके द्वारा वे उसगको कर दिया, यह एक अनुसन्धानका विषय है। ग्रन्थपर एक- प्राप्त उप ऐसा कछ उल्लेख स थमें नहीं है। मात्र संस्कृत टीका जो उपलब्ध है वह भट्टाक शुभचन्द्रकी हो. भगवतीअाराधना जैसे प्राचीन ग्रन्थकी निम्न है और विक्रम संवत् १६१३में बनकर समाप्त हुई है। गाथा नं. १५४६ में बचके द्वारा उपसर्गको प्राप्त हुए एक इस टीकामें अनेक स्थानों पर ग्रंथका नाम 'कातिके नुप्रेक्षा' व्यत्रिका उल्लेख जरूर है. साथ उपसर्गस्थान रोहडक' श्रीर दिया है और ग्रन्थकार का नाम 'कार्तिकेय' मुमे प्रकट किरा 'शक्रि' हथियारका भी उल्लेख है परन्तु 'कार्तिके.' है तथा कुमारका अर्थ भी 'कार्तिकेय' बतलाया हैx । नामका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। उस व्यतिको मात्र अग्निइससे संभव है कि शुभचन्द्र भट्टारकके द्वारा ही यह दायितः' लिखा है. जिसका अर्थ होता है अग्निप्रिय, नामकरण किया गया हो-टीकासे पूर्वके उपलब्ध साहित्यमें अग्निका प्रेमी अथवा अग्निका प्यारा, प्रेमपात्र :ग्रंथकाररूपमें इस नामकी उपलब्धि भी नहीं होती। रोहेब्यम्मि सत्तीए मोकाचेण श्रमियदा वि ।
'कोहेण जाण तपदि' इत्यादि गाथा नं० ३६४ की तं वेदणमधियासिय पडिवण्णो तमं अटुं ॥ टीकामें निर्मल क्षमाको उदाहत करते हुए घोर उपसर्गोको 'मजाराधनादर्पम' टीकामें पं० श्राशाधरीने 'प्रांग * वोच्छं अणुपेहायो (गा. १); बारमअणुपेक्खायो दयिदो' (अग्निदयित:) पदका अर्थ, 'भग्निगज नाम्नो
भणिया हु जिणागमाणुसारेण (गा० ४८८)। राज्ञः पुत्रः कार्तिकेयसंज्ञः'-ग्नि नामके राजाका पुत्र x यथा:-(१) कार्तिकेयानुप्रेक्षाष्टीका वक्ष्ये शुभश्रिये- कार्तिकेय संशक--या है। कार्तिकेय मुनिकी एक कथा
(श्रादिमंगल) भी हरिषेण. श्रीचन्द्र और नेमिदत्तके कथाको में पाई (२) कार्तिकेयानुप्रेक्षाया वृत्तिविरचिता वरा (प्रशस्ति ८)। जाती है और उसमें कार्तिकेयको कृनिका मानासे उत्पन्न (३) 'स्वामिकार्तिकेयो मुनीन्द्रो अनुप्रेक्ष्या त्याख्यातुकाम: अग्निराजाका पुन बतलाया है। माथ ही, यह भी लिखा
मल गालनमंगलावाप्ति-लक्षण मंगल]माचष्टे(गा०१) है कि कार्तिकेयने बालकालमें--कुमारावस्थामें ही मुनि (४) केन रचितः स्वामिकुमारेण भव्यवर-पुण्डरीक-श्री- दीक्षा ली थी, जिसका अमुक कारण था, और कार्तिकेयकी
स्वामिकार्ति केमुनिना आजन्मशीलधारिण:अनुप्रेक्षा: बहन रोहेटक नगरके उस च गजाको ब्याही थी जिसकी रचिताः।
(गा. ४८७)। शक्रिसे आहत होकर अथवा जिमके किये हुए दारुण (५) अहं श्रीकार्तिकेयसाधुः संस्तुवे (४८६) उपमर्गको जीतकर कार्तिकेय देवलोक सिधारे हैं। इस (देहली नवा मन्दिर प्रति वि०, संवत् १८०६
कथाके पात्र कार्तिकेय और भगवती आराधनाकी उक्त गाथाके