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ग्रन्थ और ग्रन्थकार
[सम्पादकीय ]
'पुरातन-जैनवाक्य-सूची' की प्रस्तावनामें, जो अभी तक अप्रकाशित है और अब जल्दी ही प्रेसको जानेवाली है, 'ग्रन्थ और ग्रन्थकार' नामका भी एक प्रकरण है, जिसमें मैंने इस वाक्यसूचीके श्राधारभूत ६३ मूलग्रन्थोंका परिचय दिया है। इस प्रकरण मेंसे नमूनेके तौरपर कुछ ग्रन्थों का परिचय अनेकान्त-पाठकोंके अवलोकनार्थ नीचे दिया जाता है:-1
१ मूलाचार और वट्टकर
पाई जाती हैं जिनमें ग्रंथकर्ताका नाम कुन्दकुन्दाचार्य दिया
हा है। डाक्टर ए. एन. उपाध्येको दक्षिणभारतकी कुछ __ 'मुलाचार जैन साधुचोंके प्राचार-विषयका एक बहुप्त ऐसी प्रतियोंको स्वयं देखनेका अवसर मिला है और जिन्हें, ही महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक ग्रंथ है। वर्तमानमें दिगम्बर प्रवचनमारकी प्रस्तावनामें, उन्होंने quite genuine in सम्प्रदायका 'याचाराज' सूत्र समझा जाता है । धवला their appearance 'अपनेरूपमें बिना किसी मिलावटके टीकामें प्राचाराङ्गके नामसे उसका नमूना प्रस्तुत करते हुए विस्कुल असली प्रतीत होने वाली' लिखा है। इसके कछ गाथाएँ उद्धृत हैं, वे भी इस ग्रंथमें पाई जाती है; सिवाय, माणिकचन्द्र दि. जैन-ग्रन्थमालामें मलाचारकी जब कि श्वेताम्बरोंके आचारागमें वे उपलब्ध नहीं हैं, जो सटीक प्रति प्रकाशित हुई है उसकी अन्तिम पुष्पिकामें इससे भी इस ग्रंथको श्राचाराङ्गकी ख्याति प्राप्त है । इसपर भी मलाचारको
प्राप्त है । इसपर भी मूलाचारको 'कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत' लिखा है। वह 'आचारवृत्ति' नामकी एक टीका प्राचार्य वसुनन्दीकी उप- पुष्पिका इस प्रकार है:लब्ध है, जिसमें इस ग्रंथको आचाराग का द्वादश अधिकारों में उपसंहार (सारोद्वार) बतलाया है, और उसके तथा भाषा
____ “इति मूलाधार-विवृतौ द्वादशोऽध्यायः । कुन्दटीकाके अनुसार इस ग्रंथकी पद्यसंख्या १२४३ है। वसनन्दी कुन्दाचायप्रणीतमूलाचाराख्य-विवृतिः । कृतिरियं श्राचार्य ने अपनी टीकामें इस ग्रंथके कर्ताको वट्टकेराचार्य, पर
अपनी टीकामें इस पंथ मानो वसुनन्दिनः श्रीश्रमणस्य।" वट्टकर्याचार्य तथा वढेरकाचार्यके रूपमें उल्लेखित किया यह सब देखकर मेरे हृदयमें यह खयाल उत्पन्न हुश्रा है-पहला रूप टीकाके प्रारम्भिक प्रस्तावना-वाक्यमें, दूसरा कि कुन कुन्द एक बहुत बड़े प्रवर्तक श्राचार्य हुए हैंस्व. १०वें तथा १वें अधिकारोंके सन्धि-वाकोंमें और श्राचार्यभनिमें उन्होंने स्वयं आचार्य के लिये प्रवर्तक' होना तीसरा ७वे अधिकारके सन्धिवाक्यमें पाया जाता है। एक बहुत बड़ी विशेषता बतलाया है- और 'प्रवर्तक' परन्तु इस नाम किसी भी श्राचार्यका उल्लेख अन्यत्र विशिष्ट साधुओंकी एक उपाधि है, जो श्वेताम्बर जैनसमाज गुर्वावलियों, पट्टावलियों, शिलालेखों तथा ग्रंथप्रशस्तियों में श्राज भी व्यवहृत है, हो सकता है कि कुन्दकुन्दके इस
आदिमें कहीं भी देखने में नहीं पाता, श्रीर इस लिये प्रवर्तकत्व-गुणको लेकर ही उनके लिये यह 'वट्टकर' जैसे ऐतिहासिक विद्वानों एवं रिसर्चस्कॉलरोंके सामने यह प्रश्न पदका प्रयोग किया गया हो। और इसलिये मैंने वहकर, बराबर खड़ा हुआ है कि ये रादि नामके कौनसे श्राचार्य वकेरि और वढेरक इन तीनों शब्दोंके अर्थपर गम्भीरताके हैं और कब हुए हैं?
साथ विचार करना उचित समझा । तदनुसार मुझे यह मुलाचारकी कितनी ही ऐसी पुरानी हस्तलिखित प्रतियां मालूम हुआ कि वकका अर्थ वर्तक-प्रवर्तक है. इरा * देखो. माणिकचन्द्र-ग्रंथमालामें प्रकाशित ग्रन्यके दोनों बाल-गुरु-वुड्ढ-सेहे गिलाण-थेरे य खमण-संजुत्ता । भाग नं० १६, २३ ।
वट्टावणगा भरणे दुस्सीले चावि जाणित्ता ॥३॥