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वीर-संदेश (ले०-५० ब्रजलाल जैन, 'विशारद')
- - समारमें महापरुषोंका आविर्भाव होता है जीवमात्रको दुष्कृत्योंसे त्राहि-त्राहिका नाद प्रतिध्वनित हो रहा था। शद्रों उपकृत करके उनके नाना कष्टोंके विनाश एवं उत्थानके के साथ पशुओं से भी गर्हित व्यवहार होता था । स्त्री और हेतु । उनके संकल्प दृढ़ तथा उच्च और प्राशय गंभीर शूद्र धर्म सेवन से वंचित रखे जाते थे। स्त्रियोंके अधिकारों पर होते हैं । वे प्रत्येक दशा एवं प्रत्येक स्थितिमें अपना मागे कुठाराघात करके उनको केवल भोगविलासकी सामग्री हो स्वयं परिष्कृत कर लेते हैं। घर में, वन में, सम्पद में, विपदमें समझा जाता था। सामाजिक जीवन विशृङ्खल होकर समाज उन्हें अपने अन्त:करण दीका अवलम्ब होता है। वे ज्ञान धर्ममे विमुख और अधर्मकी ओर उन्मुख हो रहा था। भृग्व के प्रकाशके लिए मतत एवं दृढ़ उद्योग करके अपना तथा और प्यासे लोग जिस प्रकार अन्न और जल के लिए तडपते संसारका कल्याण करने में संलग्न रहते हैं। सांसारिक भोग-फिरते हैं उसी प्रकार सत्य और शोतिके इच्छुक जन दरविलासकी प्रगा। उन्हें अपने कर्तव्यपथसे विचलित नहीं दरकी ठोकरें खाते फिरते थे । ब्राहाण क्षत्रिय और वैश्य कर पाती। वे अपनी कार्य-कुशलता,आशु-बुद्धि एवं चातुर्य अपने अपने पथसे भ्रष्ट होकर मदान्ध हो रहे थे।
आदि गुणोंके तथा प्रतिभाके बलसे संसाररूपी गगनपर ऐसी परिस्थिति में भगवान महावीग्ने अपना बाल्यावस्था जाज्वल्यमान् नक्षत्रकी भांति सदैव भास्वर रहते हैं। से लेकर युवावस्था तकका जीवन व्यतीत किया था। इससे उनके हृदय सदेव अन्यायका विरोध और अत्याचारका उनका हृदय विह्वल होगया और मनमें विचार प्रकट हुआ अवरोध करनेके लिए तत्पर रहते हैं।
कि संमार श्रज्ञान और अन्धविश्वास के गहरे गहरमें गिर __श्रमणोत्तम भगवान् महावीर जैन-धर्मके सबसे अंतिम रहा है- ठोकरें खा रहा है पर उसे कोई सन्मार्ग पर लाने २४ वें महापुरुष हुए हैं । आजसे २५४४ वर्ष पूर्व बिहार वाला नहीं है। उनका हृदय पूछता था- ये अत्याचार प्रान्तस्थ कुण्डलपर नगरमें चैत्र शुक्ला त्रयोदशीको उनका और अन्याय क्योंकर दूर हो ? मनु-प अपने कर्तव्यको श्राविर्भाव इस शस्म-श्यामला भारत भूमिपर ज्ञातृवंशी समझकर सुख, शांति और स्वाधीनताको कैसे प्राम करे ? क्षत्रिय गजा सिद्धार्थके औरसरुपमें उनकी महागनी प्राणों की भीषण होली, यह रक्तगत क्या वास्तबमें सत्यके त्रिशलादेवीके गर्भसे हुआ था। उनमें महापुरुषांके सभी निकट है ? उत्तर मिलता था-- नदी । प्रश्न उटता थालक्षण विद्यमान थे- अपूर्व तेज, अलौकिक प्रतिभा एवं तो फिर घाम्तव सत्य है क्या ? इसी जिज्ञासाम उनकी असाधारण व्यक्तित्व । उनके जन्मसे संसार धन्य होगया था अवस्था ३० वर्षको प्राम होगई। उन्होंने सोचा कि जब तक सर्वत्र तत्काल ही एक अानन्द की लहर दौड़ गयी थी। मैं स्वयं यथार्थतामे अभिज नहीं होना तबतक हम महान
उस समय संसार की दशा अत्यंत शोचनीय हो रही कार्यमें सफलता प्राम करना अशक्य है । अत: उन्होंने गृहयो । अन्याय और अत्याचारकी विषम ज्वाला अपना जंजाल एवं राजपाटका वैभव श्रादि त्याग कर सर्व प्रथम प्रचण्ड रूप धारण किये हए थी। मर्वत्र ई. द्वेष कलह श्रात्मशुद्धि तथा आन्तरिक शक्तियाँको विकमित करनेका
और अन्धविश्गमका साम्राज्य छाया हुआ था । धमके निश्चय किया और मुसीबतोको अपनाकर जंगलमे नाता पवित्र नाममे मूक पशुओंकी गर्दनापर दुधारे चलाये जा जोड़ने के लिए उद्यत हुए। रहे थे । यजामें पशुबलि तथा नरबलि देकर बताया जाता माता-पिता पुत्र के विवाद की व्यवस्थामें लीन थे नर था कि यज्ञमें मारे गये जीवको मिलता है स्वर्ग। हन राक्षमी भगवान महावीरने अपना ध्येय प्रकट किया । घरमें हा हा