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अनेकान्त
प्रति थे, जैसा कि उनके निम्न पद्यसे प्रकट है:-- श्रीला वर्गटनभस्तल पूर्णचन्द्रः शास्त्राणवान्तगसुधीस्तपसां निवासः । कान्ताकलावपि न यस्य शरैर्विभिन्नं स्वान्तं बभूव स मुनिर्जयसेननामा ॥ - प्रद्युम्नचरित कारंजा प्रति यह जयसेनाचार्य महासेन के प्रगुरु- गुणाकरसेनसूरके गुरु थे । गुणाकरसेनसूरि के शिष्य महासेनका समय पं० नाथूरामजी प्रेमीने सं० २०३१ से १०६६ के मध्यमें किसी समय बतलाया है। और यदि महासेनसे ५० वर्ष पूर्व भी जयसेनाचार्य का समय माना जाय तो भी वह १० वीं शताब्दी का उत्तरार्ध हो सकता है; क्योंकि महासेन राजा मुंजके द्वारा पूजित थे, और मुंजका समय विक्रमकी ग्य रहवीं शताब्दीका का है । इनके समय के दो दानपत्र सं० १०३१ और १०३६ के मिले हैं। और प्रेमीजी की मान्यतानुम र सं० २०५० से १०५४ के मध्य में किसी समय तैलपदेवने मुंजका बध किया था। इससे स्पष्ट है कि श्राचार्य महासेन विक्रम की ११ वीं शताब्द के
में हुए हैं। और इनके गुरु तथा प्रगुरु जयसेन दोनों का समय यदि इनसे ५० वर्ष पूर्व भी माना जाय, जो अधिक नहीं, तो इन जयसेनका समय विक्रमकी दशवीं शताब्दीका अन्तिम भाग होगा । इस विवेचनसे इतना और भी स्पष्ट हो जाता हैं कि यह जयसेन पूर्वोक्त जयसेन नामके विद्वानों से भिन्न हैं; क्योंकि वे इनसे बहुत पहले हो गये हैं । और वे लाड बागड़ संघके आचार्य भी नहीं थे । अतः यह तृती" जयसेन नामके जुदे. ही विद्वान हैं।
चतुथं जयसेन वे हैं जो भावसेनके शिष्य और कर्ता थे और जिनका समय सं० १०५५ पहले बतलाया जा चुका है। इन जयसेनका समुल्लेख आचार्य नरेन्द्रसेनने अपने सिद्धान्तसारकी अन्तिम प्रशस्ति पद्य में निम्न रूपसे किया है:
ख्यातस्ततः श्रीजयसेननामा जातस्तपः श्रीक्षतदुःकृतौघः । यः त्तर्कविद्यावदश्वा विश्वासगेहं करुणास्पदानां ।। १ देखो, जैनसाहित्य और इतिहास पृ० १८४ ॥
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इस पद्य में भावसेनके शिष्य जयसेनको तप रूपी लक्ष्मा के द्वारा पापसमूह का नाशक, सर्त्तकविद्याfa पारदर्शी और दयालुओं के विश्वासपात्र बतलाया गया है ।
पांचवें जयसेन वे हैं जो वीरसेनके प्रशिष्य और सोमसेन के शि" थे, ' । इन्होंने श्राचार्य कुन्दकुन्द के प्राभृतत्रयपर अपनी 'तात्पर्य वृत्ति' नामकी तीन टीकाएं लिखी हैं। इनका समय डा० ए० एन उपध्ये एम. ए. डी. लिट् कोल्हापुर ने प्रवचनसार की प्रस्तावना में ईसाकी १२ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध और विक्रमकी १३ वीं शताब्दी का पूर्वार्ध निश्चित किया है; क्योंकि इन्होंने श्राचार्य वीर नन्दीके आचारसारसे दो पद्य उद्धत किये हैं । आचार्य वीरनन्दीने आधारसारकी स्वोपज्ञ कनड़ टीका शक सं० २०७६ (वि० सं० १२११) में पूर्ण की थी । इनके गुरु मेघचन्द्र त्रैविद्यदेवका स्वर्गवास विक्रम को १२ संदीके उणन्त्य समय में अर्थात् १९७२ में हुआ था। इससे जयमेनसूरिका समय विक्रमकी १३ व सदीका प्रारम्भ ठीक ही है।
छठे जसे वे हैं जो प्रतिष्ठासार के कर्ता हैं और जिनका अपरनाम वसुविन्दु कहा जाता है । यह अपनेको कुन्दकुन्दाचार्यका अशिष्य प्रकट करते हैं। इन्होंने प्रतिष्ठापाठ नामका ग्रंथ दक्षिण दिशा में स्थित 'कुकुर' नामके देश में सह्याद्रिके समीप श्रीरत्नागिरके ऊपर भगवान चन्द्रप्रभके उन्नत चैत्यालय में (जिसे लालाहराजाने बनाया था ) बैठकर प्रतिष्ठा करने के लिये गुरु की आज्ञा से प्रतिज्ञा पूर्ति निमित्त ? See, Introbuction of the Provacansara Po 10+
और प्रवचनसारी तात्पर्यवृत्ति प्रशस्ति । २ देखो, तात्पर्यवृत्ति पृ० ८ और श्राचारसार ४-६५-६६ श्लोक |
३ स्वस्तिश्रीमन्मेघचन्द्रत्रैविद्य देवरश्रीपादप्रसादासादितात्म प्रभावसमस्त विद्याप्रभाव सकल दिग्वर्तिकीर्तिश्रीमद्वीरनन्दिसैद्धान्तिकचक्रवर्तिगलु शक वर्ष २०७६ श्रीमुखनाम - संवत्सरे ज्येष्ठ शुक्ल १ सोमवारदंदु तावुमाडियाचारसारक्के कर्णाट वृत्तियमा डिदपर" |