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अनेकान्त
[वर्ष ८
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व्यापारादि बाह्य परिश्रमकी वहां कोई जरूरत नहीं. कायम की ऊँचनो के ख्यालसे नहीं। चूँकि तीर्थकर होता है । भागभूमिके सभी मनुष्य समान होते और समदर्शी और दयाके समुद्र थे वे कैसे उन आर्यों में आर्य कहलाते हैं। फर्मभूमिके समयमें मनुष्योंको किमीको ऊँच और किमीको नीच कह सकते थे । उस अपने कर्म-पुरुषार्थ (असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, व्यवस्थासे सभी मनुष्य अपने अपने निश्चित कर्मों सेवा, शिल्प) द्वारा अर्थात् शासन-रक्षण , लेखन, द्वारा आजीविका हल करने लगे। इस प्रकार क्षत्रिय खेती, व्यापार, दूसरोंकी सेवा, और चित्रकारी आदि वैश्य, शूद्र वर्णकी नीव भ० ऋषभदेवने आजीविका कार्योंसे आजीविकाकी समस्या हल करनी पड़ती है। भेद और आचारभेदपर डाली । इसके बाद भ० ऐस समयका ही कर्मभूमिका समय कहते हैं। इस ऋषभके पुत्र भरत चक्रवर्तीने तीनों वर्गों के दयालु युगके पूर्व भारतमें भोगभूमिका समय था । उस लोगोंको छाँटकर ब्राह्मणवण स्थापित किया । अादि जमानेमें मभी मानव श्रआर्य कहलाते थे और कल्प- पुगण पर्व ३६ से प्रकट है कि भरत चक्रवर्तीन जब बृक्ष जन्य सुग्वोंका अनुभव करते थे, जैनधर्मानुसार ब्राह्मण वर्ण स्थापित करनेका विचार किया तो एक उस समय मानवोंमें कोई वर्ण-व्यवस्था नहीं थी, उत्मवका आयोजन करके उसमें गजाओंको अपने सभी उच्च और आय कहलाते थे। जब भोगभूमिकी मित्रों बन्धुओं और नौकरों सहित निमंत्रित किया। ममाप्ति हो गई और फल्पवृक्ष भी नष्टप्रायः हो गये निमंत्रणमें जो लोग सम्मिलित हुए उनमें क्षत्रिय, एवं कमभूमि प्रारम्भ होगई और इसमें उन अाय वैश्य, शूद्र सभी तरह के मनुष्य थे। उनमें जो भरत मनुष्यों को भोजनादि सामग्री मिलना कठिन होगया महाराज के आंगन में उगे हुये हरे धान्योंको कूचते तब वे आर्य मनुष्य उस जमानेके कुलकर नाभिराजाके हुये पहुँचे उन्हें तो चक्रवर्तीने घरसे बाहर निकाल पास पहुँचे और दुःखको निवेदन किया। नाभिगजाने दिया और जो दयाप्रधानी धान्योंको न कूचकर बाहर समझाया कि 'अब भागभूमि समाप्त हो चुकी है और ही खड़े रहे और जब वापिस जाने लगे तो उन्हें कर्मभूमि प्रारंभ हो गई है, अतः अब तुम लागोंको धर्मात्मा दयालु समझकर ब्राह्मणवर्ण संज्ञा दी और अपने परिश्रम द्वारा श्राहारादिकी ममस्या हल करनी उनका उचित सम्मान किया। इस तरह भरत महागजहोगी।' उन्होंने उसके उपाय बताये और विशेष ने तीनों वर्णोके लोगोंमेंसे दयालुओंको छांट कर समझने के लिये अपने पुत्र भगवान ऋषभदेवके ब्राह्मण बनाया । इससे साफ जाहिर है कि पास भेज दिया । भ. ऋषभने उन सबको असि, वर्ण-व्यवस्थाकी नीव आचार-क्रिया और आजीविकाममि, कृषि, वाणिज्य, सेवा, शिल्प इन छह कमाकी भेदपर बनी है -नित्य जन्मता नहीं है। व्यवस्था बतलाई और इन्ही षट् कर्मोद्वारा श्राजी वका वर्णों का परिवर्तन भी क्रिया-धंधा बदल देनेपर हल करनेकी समस्या समझाई। उम्ही भ० ऋषभदेवने होजाता है। जैसा ऊपर सिद्ध किया है। श उन मनुष्योंको-जिनने असिकर्म-शस्त्र चलाना वर्णलाभ करने वालेको पूर्वपत्नीके साथ पुनर्विवाह
और शासनकर्म (लोकरक्षण)द्वारा आजीविका मंजूर को करनेका विधान मौजूद हैक्षत्रियवर्ण संज्ञादी । जिनने खेती, व्यापार पुनर्विवाहसंस्कारः पूर्वः सर्वोस्ऽय सम्मतः। और लेखनकला द्वारा आजीविका मंजूर की
(आदिपु० पर्व ३६) वैश्यवर्ण संज्ञादी और जिनने सेवा करना अर्थात्-नवीन वर्णलाभ करनेपर पूर्वकी पत्नी और शिल्पकर्म द्वारा श्राजीविका स्वीकार की उनको के साथ फिरसे विवाह संस्कार करना माना गया है। शूद्रसंज्ञा दी । इस तरह भ० ऋषभदेवने संमारका आदिपुराणमें अक्षत्रियोंको क्षत्रिय होने बावत भी कार्य सुचारुतया और शान्तिपूर्ण ढंगसे चलता रहे, एसा उल्लेख हैइस बातको ध्यान में रख कर ही वर्तमान वर्णव्यवस्था "अक्षत्रियाश्च वृत्तस्थाः क्षत्रिया एव दीक्षिताः।"