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किरण ५-५]
जैनधर्ममें वर्णव्यवस्था कर्म से ही है जन्मसे नहीं
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अर्थात चारित्र धारण करनेपर अक्षत्रिय भी चिन्हानि विडजातस्य. सन्ति नांगेष कानिचित । दीक्षित होकर क्षत्रिय होजाते हैं। अतः क्रिया-आजी- अनायेमाचरन् किश्चिज्जायते नीचगोचरः।। (प०पु०) विकाके साधन बदलनेपर वर्णपरिवर्तन होजाता है। अर्थात्-व्यभिचारस पैदा हुयेके अङ्गों में कोई चिन्ह इमी तरह आचार छोड़नेपर अन्य कुलवर्ण होजाता है नजर नहीं आता है, जिससे उस नीच समझा जासके ।
"कुलावधि कुलाचाररक्षणं स्यात् द्विजन्मनः। अतः जिसका प्राचार नीच है वही नीच वर्ण समझा तस्मिन्नसत्यसौ नष्टक्रियोऽन्यकुलतां ब्रजेत् ॥” जाता है।
a (आदिपु० ४० वां ५०, १८१ श्लोक) विप्र-क्षत्रिय-विड़-शूद्राः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः। अर्थात्-ब्राह्मणोंको कुलकी मर्यादा और कुला- जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बिन्धवोपमाः ।। चारकी रक्षा करना चाहिये । यदि कुलकी मर्यादा
(अमितगत ध०र०) और कुलाचारकी रक्षा न की जाये तो नष्टक्रिया वाला अर्थात्-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शद्र ये सब वर्ण बाहामा अन्य कल वर्णवाला होजाता है। अतः वर्ण क्रियाभेदसे कहे गये हैं। जैनधर्मको सभी धारण की व्यवस्था जैनशासनमें आचार-क्रिया-विशेषपर कर सकते हैं और धर्म धारण करनेसे वे सब भाईके निर्भर है-जन्मसे नहीं।
समान होजाते हैं। जैनशास्त्रोंस यह भी प्रकट है कि प्रत्येक चक्रवर्ती "नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् ।। नारायण आदि प्रतिष्ठित महान पुरुषोंने और शान्ति
(गुणभद्राचार्य) नाथ कुथुनाथ अरहनाथ इन तीन तीर्थकर चक्र - SI
अर्थात-मनुष्यों में गौघोड़े के समान जाति (वर्ण) वर्तियांने म्लेच्छ, शद्र, विद्याधर और क्षत्रिय कन्याओं कृत भेद नहीं हैं। से विवाह कर संसार के सामने आदर्श रखा था । मनुष्यजातिरेकंव, जातिमामोदयोद्भवा । दुःख है कि आज हम लोग मिथ्या • दमें व्यस्त होकर वृत्तिभेदाहितानेदाच्चातुविध्यमिहारनुते ।। किसीको ऊँच और किसी (शद्रादि)को नीच मान रहे
(आदि पु० ३८ पर्व ४५ श्लो. हैं। किन्तु जैनशासन सभीको एक मानता है और ब्राह्मणावतसंस्कारात क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । बर्णव्यवस्थाको क्रियाधीन और आजीविका दम वाणिजोर्थार्जनान्न्यय्यात शृद्राः न्यक्वृत्तिसं यात ।। मानता है। यहां हम इस सम्बन्धमें शास्त्रीय प्रमाण
_ (आदिपु० ३८ पर्व, ४६ श्लो०) को प्रस्तत करते जो जैन शालों में भरे पडे :- अर्थात-जातिनामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुई चातुर्वण्य यथान्यच्च, चाण्डालादिविशेषणम्। मनुष्य जाति एक ही है किन्तु आश्रीविका भेदोंसे चार सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धिं भुवने गतम् ।। ।। (पद्मपु०)
भागों में बट गई है । व्रतों के संस्कारस ब्राह्मण, शस्त्र अर्थात-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शद, चांडालादि धारण करनेसे क्षत्रिय, न्यायपूर्वक द्रव्य कमानेसे वैश्य; भेद आचारभेदसे ही माने गये हैं।
और नीचवृत्तिका आश्रय लेनेसे शूद्र कहलाते हैं। श्राचारमात्रभेदेन, जातीनां भेदकल्पनम् । वर्णाकृत्यादिभेदानां, देहेऽस्मिन्न च दर्शनात् । न जातिाह्मणीयास्ति नियता क्वापि तात्विकी ॥ ब्राह्मण्यादिपु शूद्राद्यैः गर्भाधानप्रवर्तनात् ॥ गुणैः संपद्यते जातिः गुणध्वंसैविपद्यते।
(उत्तरपुराण प०७४) (धर्मपरीक्षा) अर्थान--इस शरीरमें वर्ण और आकारसे भेद अर्थात्-ब्राह्मणत्वादि जाति वास्तविक जाति नहीं नहीं दिखाई देता है । तथा ब्राह्मणी आदिमें शूद्रादि है। सिर्फ प्राचारके भेदस जाति की कल्पना है। के द्वारा गर्भाधान भी देखा जाता है । तब कोई गुणोंसे जाति प्राप्त होती है और गुणों के नाशसे व्यक्ति अपने वर्ण और जातिका घमंड कैसे कर नाशको प्राप्त होजाती है।
सकता है ? इसलिये जो सदाचारी है वही उच्च