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किरण ४-५]
जैनधर्ममें वर्णव्यवस्था कर्म से ही है, जन्मसे नहीं
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दो दिन में बनाया था । इस प्रतिष्ठापाठको देखने से
उपसंहार प्रथ कोई महत्वशाली मालूम नहीं होता, भौर न म प्रविवेचनपरमे. जिसमें धर्मरत्नाकरके उसमें प्रतिला सम्बन्धी कोई खास वैशिष्टय ही नज़र परिचयके साथ छह जयसेन नामके विद्वानोंका संक्षिप्त
आता है । भाषा भी घटिया दर्जे की हैं जिससे ग्रंथकी परिचय कराया गया है और धमलाकर के को महत्ता एवं गौरवका चित्तपर विशेष प्रभाव नहीं जयसेनका स्पष्ट समय निश्चित किया गया है, प्राचाय पड़ता। इस कारण यह स्पष्ट मालूम होता है कि यह अमृतचन्द्र के समयपर अच्छा प्रकाश पड़ता है और प्रवचनसारादिप्राभृतग्रंथोंके कर्ताक शिष्य नहीं हैं, यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके समयकी उत्तरावधि किन्हीं दूसरे ही कुन्दकुन्द नामके विद्वानके शिष्य वि० सं० १०५५ के बाद की नहीं हो सकती, इसस हो सकते हैं। इनके सम्बन्धमें भी अन्वेषण करना
अमृतचन्द्र के समय-सम्बन्ध में एक स्वतंत्र लेख द्वाग जरूरी है।
विचार किया गया है। १ देखा, प्रतिष्ठापाठ प्रशस्ति ।
ता०३-५-४६, बीरसेवामन्दिर, सरमावा।
जैनधर्ममें वर्ण-व्यवस्था कर्मसे ही है, जन्मसे नहीं
[वीर-शासनमें साम्यवादका महत्वपूर्ण आधार] (लेम्बक-वैध पं० इन्द्रजीत जैन मायुर्वेदाचार्य, शास्त्री, न्यायनीर्थ )
जिस तरह पूर्ण अहिंसाबाद सर्वजीवोंमें माम्य- पूर्ण रूपसे स्थापित किया और जन्मसे किसीको भी वादका आधार है उसी तरह मनुष्यवर्ग में भी साम्य- ऊँच नीच नहीं माना । केवल जो ऊँचे कर्म (अहिमा, पादका आधार जन्मसे वर्ण व्यवस्थाको न मानना झूट, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पापोंके त्यागरू) ही है। यही कारण है कि भगवान महावीरने प्रचलित आचार-विचार पाले, उस ऊँचा (उच्चवर्णी) घोषित वणव्यवस्थाको जन्मसे न मानकर कर्म (क्रिया) से किया और जो उक्त प्रकारके उन आचार विचार न ही माना है। और सभी प्राणियों को जैन धर्म धारण पाले उसे नीच घोषित किया । जन्मसे ऊँच-नीचका करनेका अधिकारी बतलाया है । जिस वैदिक युगमें फतवा किमीको नही दिया । श्राज तमाम जैनशास्त्र शूद्रोंको पशुसे भी बदतर माना जाता था तथा शूद्रों इस बातको बतलाते हैं कि वणे - व्यवस्था कर्मसे है, की छाया पड़ने पर भी वैदिक पंडित स्नान कर डालते जन्मसे नहीं।। थे । उस समय भ० महावीरने उन सभी वर्गके प्राणियोंको अपने धर्ममें दीक्षित किया और उनकी प्राइये गठक ! जैनधर्मानुमार वर्ग,व्यवस्थाके
आत्माका कल्याण किया था। इसीलिये भ० महावीरके आदि स्रोतपर नजर डालें । जैनधर्मानुसार इस समवशरण (धर्मसभा ) में सभी तरह के मनुष्य, पृथ्वीपर दो समय विभाग माने गये हैं, एक भोगपशु-पक्षी. देव-दानव जाकर जैनधर्म धारण करते भूमिका समय और दूसरा कर्मभूमिका समय ।
और अपनी अत्माका कल्याण करते थे । भ० वीरने भोगभूगिके समय सभी मानव व निर्यच कल्पवृक्षसर्व जीवोंमें और खासकर मनुष्य वर्गमें साम्यवाद जन्य सभी तरह के सुग्वोंका अनुभव करते हैं और