________________
किरण ४-५]
धर्मग्त्नाकर और जयसेन नामके भाचार्य
२०३
धर्मरत्नाकरकी कितनी हो प्रतियों में उसका वैयाकरण. प्रभावशाली और सम्पूर्ण सिद्धान्त ममुद्ररचनाकाल विषयक पद्य नहीं है वह लेखकों की के पारगामी बतलाया है, जिमसे वे महान योगी,
ट गया जान पड़ता है। परन्तु ऐलक पन्ना- तपस्वी और प्रभावशाली सैद्धान्तिक आचार्य मलूम लाल दिगम्बरजैन सरस्वतीभवन व्यावर के शास्त्रभंडार होते हैं। साथ ही कर्मप्रकृतिरूप आगमके धाक की एक प्रतिमें जो सं० १७७६ की लिखी हुई है, होने के कारण संभवतः वे किसी कर्मग्रंथ के प्रणेता भी रचना समयवाला पद्य निम्न रूपमें पाया जाता है:- रहे हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं; परन्त उनके वाणे न्द्रयव्योमसोममिते संवत्सरे शुभे (१०५५)। द्वारा किसी ग्रंथके रचे जाने का कोई प्रामाणिक स्पष्ट ग्रंथोऽयं सिद्धतां यातः सकली करहाटके' ॥१॥ उल्लेख अभी तक देखने में नहीं आया। ___ इस पद्यपरसे प्रस्तुत ग्रंथका रचना काल वि० सं० आदिपुराणके कर्ता जिनसेनाचार्य, जो व रमना१०५५ स्पष्ट है। और यह सकलीकरहाटक नामके चार्य के शिष्य थे, हरिवंशपुगणके कर्ता से पहले हो किसी नगरमें बनकर समाप्त हुआ है।
गए हैं क्योंकि हरिवंशपुराणकारने जिनसेनके पार्श्वभ्युजयसेन नामके दूसरे विद्वान् दयकाव्यका पार्श्वजिनेन्द्रगुणस्तुति' रूपसे उल्लेख किया जयसेन नामके कई विद्वान आचाय हो चुके हैं है जिससे आदिपुराण का पुत्राटसंघीय जिनमनसे जिनका कुछ परिचय यहां प्रस्तत किया जाता है। पूर्ववातत्व स्वतः सिद्ध है। अतः उक्त दोनों ग्रंथकारों उससे अन्वेषक विद्वानों को एक नामके कुछ विद्वानों ।
नों द्वारा स्मृन जयसन एक ही विद्वान मालूम होते हैं। का एकत्र परिचय मिल सकेगा।
जिनसंनने अपने हरिवंशपुगणमें जो विस्तृत गुरुरंप्रथम जयसेन वे हैं जिनका उल्लेख ईसाकी प्रथम
___ परा दी है उसमें न्होंने अपनेको जयसेनके शिष्य शताब्दीक मथुराके शिलालेखमें पाया जाता है और
अमतसेन और प्रशिष्य कीर्तिषेणका शिष्य बतलाया जो धर्मघोषके शिष्य थे।
है। अब अमितसेन और कीर्तिषेण का समय यदि द्वितीय जयसेन वे हैं जिनका स्मरण आदि
प्रत्येकका पञ्चीस पच्चीस वर्षका अनुमानित किया पुराणके कता भगवजिननाचार्य ने किया है और
जाय जो अधिक मालूम नहीं होता तो जयमनका इ मालूम होता है कि वे एक महातपस्वी
समय शक संवत ६५५ (वि० सं०७६०) या इसके श्रत और प्रशमके, तथा विद्वत्ममूहमें अग्रणीय थे, आस-पास का होगा; क्योंकि जिनसेनने अपना हरिवंश जैसा कि उनके निम्न पद्यस प्रकट है:
पुराण शक सं०६०५ (वि० सं०७४०) में बनाया है। जममिस्तपालक्ष्म्या श्र.प्रशमयोनिधिः।
अतएव उक्त दोनों ग्रंथकारों द्वारा स्मृत अयसेन विक्रम जयसनगुरुः पातु बुधवृन्दाग्रणी मनः॥५४॥ की८वीं शताब्दीके द्वितीय जयसेन मालूम होते हैं। और
पुन्नाटसंघी प्राचार्य जिनसननेभी अपने हरिवंश- यह भी हो सकता है कि दोनों जयसेन भिन्न भिन्न भी पुराणमें एक जयसेनका महत्वपूर्ण शब्दों में उल्लेख रहे हों, अतः इ के एकत्व अथवा प्रथकत्व विषयक किया है । यथाः--
विशेष प्रमाणों के अनुसंधान की प्रावश्यक्ता है। दधार कर्मप्रकृतिं च यो श्रुति जिताक्षवृत्तिर्जयसेनसद्गुरुः। तृतीय जयसेनका उल्लेख प्रद्युम्नचरितके कर्ताप्राचार्य प्रसिद्धवैयाकरणप्रभाववानशेषराद्धान्तसमुद्रपारगः ॥ महासेनने किया है जो लाडवागड़संघक पूर्णचन्द्र थे ____ इस पद्यमें जयसेनको सद्गुरु इन्द्रियव्यापार शास्त्रसमुद्र के पारगामी थे, तपके निवाम थे और स्त्री विजयी. कमप्रतिरूप आगमक धारक, प्रसिद्ध की कलारूपी बाणोंसे नहीं भिदे थे--पण ब्रह्मचयसे १ यह पद्य भवनके मेनेजर पं. दीपचन्दजी पांड्या की कृपासे ३ यामिताभ्युदये पार्श्वजिनेन्द्र गगासंस्तुतिः।
प्राप्त इन है। अत: मैं इसके लिये उनका आभारी हूँ। स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्ति मंकी त्यसौ ॥ ४०॥ २ See, E.J; P. 1991
-हारवंश पुराण १-४०