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अनेकान्त
[वर्ष ८
"प्रज्ञ प्राणी जितने कर्म करोड़ वर्षों में क्षय करता है दिया हुआ है और उन दश सम्यक्त्वोंकी स्वरूप ज्ञानी जीव उतने कर्म त्रिगुप्तिसे उश्वास मात्रमें नष्ट निर्देशक सस्कृत गद्य भी यशस्तिलक चम्पूके ६ ठवें कर देता है"।
आश्वासके पृष्ठ ३-३ के समान ही दी हुई है यथाः___ ग्रंथ(पारा प्रति पत्र १०४में 'ओं णमो अग्हंताणं' आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् ।
आदि महामंत्र के बाद षट् बण्डागम के वेदनाखण्ड गत विस्तारार्थाभ्यां भवभवपरभावादिगाढं च ॥१०-३० ४४ मंगल सूत्रोंमेंस 'ओंगणमो जिणाणं' आदि २५- 'अस्यार्थः-भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीतागमानुज्ञासंज्ञा ३० मंगलसूत्र भी समुद्धृत हैं, जिन्हें ग्रंथकाने विघ्न आज्ञा. ग्लत्रयविचारसर्गो मार्गः, पुराणपुरुषचरित विनाशक एवं सुग्वप्रद समझकर रक्खा है । पश्चात् श्रवणेभिनिवेशः उपदेशः यतिजनाचा निरूपणपात्रं कतिपय पद्यों के साथ कुछ प्राकृत पद्य भी उद्धत किये सूत्रम्। सकलसमयदलसूचनाव्याज वीजम्, प्राप्तश्रुतव्रतहैं जिनमें अरहंतादि पंचपरमेष्ठियों तथा यक्षादिकों पदार्थ समासालापेक्षः संक्षेपः, द्वादशांगचतुर्दशपूर्वप्रका आह्वान किण गया है. और कुछ संस्कृत में बीजाक्षर कीर्णविस्तीर्णश्रतार्थसमर्थनप्रस्तारो विस्तारः, प्रवचन युक्त मंत्र भी दिये हैं। अनंतर १०७ वें पत्रमें देवशास्त्र विषये स्वप्रत्ययसमर्थोऽर्थः त्रिविधस्यागमस्य निःशेषतो गुरु की नैमित्तिकपू के आदिमें पढ़े जाने वाले ऽन्यतमदेशावगाहालीढमवगाढम् अवधिमनःपर्ययचौंठ ऋद्धियोंक नाम व स्वरूप निर्देशक-नित्या- केवलाधिकपुरुषप्रत्ययप्ररूढं परमावगाढम ॥" प्रकम्पादतकेवलाघाः स्फुरन्मनःपर्ययशुद्धबाधाः ।' धर्मरत्नाकरमें आचार्य अमृतचन्द्र के पुरुषार्थ इत्यादि पद्य भी पाये जाते हैं जिनके कर्तृत्वका अभी सिद्धय पायके ५६ पद्य पाये जाते हैं। और भी कुछ कोई निर्णय नहीं है कि वे वतः ग्रंथकार जयसेनाचार्य पद्योंका होना संभव है।साथ ही इन पद्योंके अतिरिक्त कुछ द्वारा बनाये गये हैं अथवा इनसे पूर्ववर्ती किसी अन्य पटा ऐसे भी हैं जिनमें कल पाठभेट पार
पद्य ऐसे भी हैं जिनमें कुछ पाठभेद पाया जाता है । यथाः आचार्य द्वारा निर्मित हैं।
पात्र त्रिभेदमुक्त संयोगो मोक्षकारणगुणान म्। ___ व्रतोंका महत्व ख्यापित करते हुए उनमें प्रसिद्धि
__अविरतसम्यग्दृष्टिः विरताविरतश्च सकलविरतश्च ।। पानेवाले कुछ भव्योंका नामादि समुल्लेखपूर्वक
-पुरुषार्थसिद्धथु पाय १८१ उल्लेख किया है और सम्यग्दर्शनका स्वरूप व महत्व पात्रं त्रिभेदमुक्त संयोगो मुक्तिकार णगुणानां । प्रकट करते हुए क्षायिक सम्यक्त्वका निम्नरूपसे महत्व सम्यग्दृष्टिविरतो विरताविरतस्तथा विरतः ॥ प्रकट किया है।:
__-धर्मरत्नाकर १८-१४-पृष्ट १२१ श्रेणकक्षितिपतियथा वहनक्षायिक तदनु रेवती परं। इसी तरह सोमदेवाचाय कृत यशस्तिलकके ६ ठे आदिराजतनुजा सुदर्शनाच्छिश्रियुः शिवपदं क्षणादपि। ७ वें और ८ वें श्राश्वासके सौसे भी अधिक पद्य पाये
अाज्ञादि दश सम्यक्त्वोंका नामनिर्देश सूचक जाते हैं। यहां यह कह देना अनचित न होगा कि यर्याप श्रात्मानुशासन का वह ११ वाँ पद्य भी ज्य का त्यों यशस्तिलक चम्प में भी अन्य ग्रंथोंसे कितने ही पद्य १ अज्ञानी यत्कर्म क्षपय त बहुकाटिभिः प्राण।। उद्धत हैं। परन्तु धर्मरत्नाकरको देखनेसे यह स्पष्ट तज्ज्ञानी गुप्तात्मा क्षयत्युच्छ वासमात्रेण || ६-१२ है कि उनके समक्ष सोमदेवका यशस्तिलक चम्प
धर्मरत्नाकरके इस पद्य को देख कर श्राचार्य कुन्दकुन्द जरूर रहा है और उसका उन्होंने अपनी रचनामें के प्रवचनसारका निम्न पद्य याद अाजाता है जिसका उपयोग भी किया है। कहीं कहीं तो उनके पद्यों के भावानुनाद स्वरूप ऊपर संस्कृत श्लोक दिया गया है- भावानुवाद को ही दे दिया गया है। जं अगाणी कम्मं ववाद भवसायसहस्सकोडीहिं। १ इन पद्योंक नम्बरोका उल्लेख 'अमृतचन्द्रसूरिका समय' तं णाणी तिहिं गुत्ती खदि उस्सासमेत्तेण ॥
शीर्षक लेखसे जानना चाहिये. जो अनेकान्तकी इसी -प्रवचनसार ३-३८ किरण में अन्यत्र प्रकाशित है।
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