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किरण ४-५ ]
प्रपाद्य विषय गृहस्थ मे हे प्रत्येक गृहस्थ के द्वारा आचरण करने योग्य अणुव्रत गुणवत और शिक्षाव्रत
द्वादश व्रतों के अनुष्ठानका इसमें विस्तृत विवेचन दिया हुआ है । ग्रंथ में बीस प्रकरण या अध्याय हैं जिनमें विवेचित वस्तुको देखने और मनन करने से उसे धर्मका रत्नाकर अथवा धर्म लाकर कहने में कोई अत्युक्ति मलूम नहीं होनी और वह उसका साथक नाम है। साथ ही ग्रंथ सुन्दर संस्कृत पद्यों अलंकृत है, जो पढ़ने में भावपूर्ण और सरस प्रतीत होते हैं प्रथमें स्वरचित और प्रमाणरूप में निविष्ट दूसरे आचार्यों तथा विद्वानों के चुने हुए वाक्य यत्र तत्र पाये जाते हैं, जिनसे विषयका करण हो जाता है और उन्हें बारबार पढ़ने के आर चित्त आकृष्ट होता है। आचार्य गुणभद्र के आत्मानुशासनका, अमृतचन्द्राचार्य के पुरुषार्थमिद्धयुपायका और आचार्य सामदेव के यशस्तिलकका, 'उक्त'च' वाक्य के साथ अथवा fear किसी ऐसे वाक्यके ही प्रन्थभर में खूब उपयोग किया गया है और इससे प्रथक कर्तृत्वसम्बन्ध में भी काफी प्रकाश पड़ता है। इस ग्रंथके कर्ता श्राचार्य जयसेन हैं जो उस समय साधु सम्प्रदाय में प्रसिद्ध थे और सभी जनों को आनन्ददायक थे श्राचार्य जयसेनने अपनी गुरुपरम्परा' इस प्रकार दी है गुरु भावसेन, १ मंदार्येण महर्षिभिर्विदरता तेपे तपो दुखरं, श्री खंडिल्लक रत्तनान्तिकरणाभ्यर्द्धिप्रभावात्तदा । शायनाप्युक्तस्पृता सुरतरुप्रख्यां जनानां 'श्रियं', तेना जीयत झाडवागडइति त्वेको हि संघोऽनघः ॥ २ ॥ धर्मज्योत्स्नां विकिरति सदा यत्र लक्ष्मीनिवासाः, प्रापुश्चित्रं सकलकुमुदायत्युपेता विकाशम् । श्रीमान्सो भून्मुनिजननुतो धर्मसेनो गद्रस्तस्मिन् रत्नत्रितयसदनीभूतयोगीन्द्रवंशे ॥ ३ ॥ भक्त्वा वादीन्द्रमान पुरि पुरि नितरां प्राप्नुवन्नुद्यमानं । तन्वन् शास्त्रार्थदानं रुचिरुचिरुचिरं सर्वथा निर्निदानं ॥ विद्यादर्शोपमानं दिशि दिशि विकिरन् स्वं यशो योऽसमानं । तेभ्यः(तस्मार्छु।) शांतिषेणः समज नि सुगुरु: पापधूली- समीर ः।। यत्रास्पदं विदधती परमागमश्रीरात्मन्यमन्यत्मतत्वमिदं तु चित्रम् ।
धर्मरत्नाकर और जयसेन नामके आचार्य
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भासेन के गुरु गोपसेन, गोपसेन के शांतिषेण और शांतिषेणके गुरु धर्मसेन गणीन्द्र । ये सब साधु झाडबागड़ संघ, जोकि वागड़ संघका ही एक भेद जान पड़ता है, विद्वान थे क्योंकि बागड़के साथ जो 'झ ड़' विशेषण लगा हुआ है वह बागड़संघ के ही भेदका सूचक अथवा निर्देशक है । परन्तु प्रयत्न करनेपर भी इस संघ के सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी ।
धर्मनार में स्वामी समन्तभद्र के देवागम और रत्नकरण्डका भी अनुकरण है। साथ ही स्वानी समन्तभद्र और कलंकदेवको तर्क और प्रमाणके द्वारा जैनशासनका समुद्धार करने वाला भी प्रकट किया है जैसा कि उसके निम्गपद्य में प्रकट है :-- स्वामी समन्तभद्रः मानकलंकदेव इत्याद्य: । तर्केण प्रमाणैरपि शासनमभ्युद्धरति स्म ॥ ७६ आरा प्रति, पत्र ५० ।
ग्रंथ में पात्रोंका स्वरूप और उनके भेदोंका निर्देश करते हुए पात्रदान करनेकी प्रेरणा की गई है। तथा ज्ञानकी महिमाका जयघोष करते हुए बतलाया है कि
वृद्धा च संततमनेकजनोपभोग्या
श्रीगोपसेन गुरुराविग्भूत्स नस्मात् ॥ ५ ॥ उत्पत्तिस्तपसां पदं च यशसामन्यो रविस्तेजसामादि: सद्वचसां विधिः सुनरसामासोन्निधिः श्रेयसां । श्रावास गुणिनां पिता च शमिनां माता च धर्मात्मनां, न ज्ञातः कलिना जगत्सुबलिना श्रीभावसेनस्ततः ॥ ६ ॥ ततो जातः शिष्यः सकलजनतानन्द जनन: ( क ) । प्रसिद्ध: साधूनां जगति जयसेनाख्य इह सः ॥ इदं चक्रे शास्त्रं जिनसमयसारार्थ निश्चितं । हितार्थे जन्तूनां स्वमतिविभवाद्
गर्व - विकलः ॥ ७ ॥ - धर्मरत्नाकर प्रशस्ति
२ वागs देशको वाग्वर, वागट, वैय्यागढ़ भी कहते हैं । यह संघ इसी देश के नामसे विश्रुत हुआ है, इसी कारण इसे वागड़ संघ कहते हैं । यह संघ अनेक भेदोंमें विभाजित रहा है, जैसे लाडवागड संघ और झाडवागड संघ, उनमें लाडवागडसंघ माथुरसंघका ही एक भेद उल्लिखित मिलता है।