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अनेकान्त
[वर्ष
मनुष्य पर्यायसे भोगभूमिका मनुष्य होता तो इस इतने बड़े अब प्रश्न यह होता है कि चौथे भव में नहीं किन्त काल में तीन पल्यके समयको और ले लिया जाता परन्तु वह तीसरे भव में ही तीर्थकर हो जाता है, इसमें हेतु क्या है ? भोगभूमिका तीन पल्यका समय टीकाकारने लिया नहीं है इसका समाधान गो. क. गा. ३६६, ३६७ की जी० प्र० इससे सिद्ध है कि तीर्थंकरप्रकृतिके प्रारम्भक मनुष्यको टीका पत्र ५२४ में इस प्रकार है-"बुद्धतियग्मनुष्यायुष्कभोगभूमिमें जन्म नहीं लेना पड़ता है।
योतीर्थे सत्त्वाभवात् ।" इसकी हिन्दी टीका (पत्र ५२६) में समाधानकारकका यह मत तो सत्य है कि तीर्थकर पं. टोडरमल्लजीने लिखा है-जाते मनुष्यायु तिर्यचायुका प्रकृति प्रारम्भक मनुष्य अधिकसे अधिक तीसरे भवमें तीर्थ- पहिलै बन्ध भया होई ताकै तीर्थकर बध न हाई।" जिस कर अवश्य होगा, परन्तु युक्ति समझमें नहीं आई। यदि मनुष्यने तीयंकर प्रकृतिका प्रारम्भ कर दिया है वह भोग किसी मनुष्यने मनुष्य श्रायुका बंध कर लिया हो पुन: भूमि में मनुष्य नहीं हो सकता। यदि उसने मनुष्य श्रायुका सम्यग्दृष्टि ही तीर्थकर प्रकृतिका प्रारम्भक हो३ कोटि पूर्व पहिले बन्ध कर लिया है तो वह तीर्थकर प्रकृतिका प्रारम्भिक वर्ष शेष मनुष्य आयुको पूर्ण कर तीन पल्यकी श्रायु वाला नहीं हो सकता और यदि उसने प्रारम्भक होनेसे पहिले उत्तम भोगभूमिमें मनुष्य हो सौधर्मद्विकमें दो सागरकी श्रायु आयुका बंध नहीं किया तो वह मनुष्य आयुका बंध नहीं भोग एक कोटपूर्व वर्षकी श्रायु वाला मनुष्य हुश्रा और कर सकता। 'सम्यक्त्वं च" त० सू० अ०६ सू०२१ के अन्त में श्रेणि चढ तीर्थकर हश्रा। इस प्रकार चौथा भब तो अनुसार जिसके सम्यक्त्व है वह देव श्रा हो गया, परन्तु तीर्थकर प्रकृति के प्रास्रवका काल "१७ करेगा अन्य प्रायुका नहीं। इस प्रकार तीर्थङ्कर प्रकृतिका कोटि पूर्व वर्ष ३ पल्य २ सागर" हुश्रा जो ३३ सागरसे प्रारम्भक मनुष्य तीसरे भवमें तीर्थकर अवश्य हो जावेगा, बहुत कम है। भोगभूमिका मनुष्य विजयादिक अनुत्तर चौथा भव घटित नहीं होता। विमानोंमें उत्पन्न नहीं हो सकता; क्योंकि वहांपर असंयमी मैं पंडित या संस्कृतका ज्ञाता नहीं हूँ। यदि कोई भूल उत्पन्न नहीं होते। अत: टीकाकारको भोगभूमिके तीन पल्य रह गई हो तो विशेष विद्वान् उसको क्षमा करें और उसका लेने की आवश्यकता न थी।
सुधार करदें।
धर्मरत्नाकर और जयसेन नामके आचार्य
(लेखक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
- - जैनसाहित्यका भालोडन करनेसे एक नामके है और उससे कितनी ही महत्वकी गुत्थियों के सुलअनेक विद्वानोंका उल्लेख मिलता है । ऐतिहासिक मानेमें मदद मिली है तथा मिल रही है। ऐसी क्षेत्रोंमें काम करनेवालोंको यथेष्ट साधन सामग्रीके स्थितिमें जैनपुरातत्त्वका संकलन एवं प्रकाशन कितना अभाव में उनका पृथक्करण करने एवं समय निर्णय आवश्यक है उसे बतलाने की जरूरत नहीं, विज्ञजन करनेमें कितनी असुविधा होती है, उसे भुक्तभोगी ही उससे भली भांति परिचित हैं। आज इसी दृष्टिको जानते हैं, और इसलिये अप्रकाशित साहित्यको शीघ्र लेकर पाठकोंके समक्ष एक अप्रकाशित ग्रंथ और उसके प्रकाशमें लानेकी उपयोगितासे किसीको भी इनकार कर्ता मादिके सम्बंधमें प्रकाश डाला जाता है। आशा नहीं हो सकता। भारतीय पुरातत्त्वमें जैन इतिवृत्तों है विद्वाज्जन उम पर विचार करेंगे। की महत्ता एवं प्रामाणिकता अपना खासा स्थान रखती प्रस्तुत ग्रंथका नाम 'धर्मरत्नाकर' और उसका