________________
किरण ४-५]
क्या तीर्थकर प्रकृति चौथे भव में तीर्थकर बना सकती है?
१६६
की जननी है, जिससे संसारके दुर्व्यसनोंको कभी भी श्राव- उनका नाम अजर-अमर है-आज हम भूल गये हैं। उन श्यकता नहीं रहती। निर्भय मनुष्य ही 'जे कम्मे सूरा ते उच्च तत्वोंसे स्वार्थके कारण हमारी श्रद्धा विचलित होगयी धम्मे सूरा' अर्थात् जो कर्मवीर है वही धर्मवीर है का पाठ है। जब तक हम वीरके दिव्य-सन्देशको-जिसमें मनुष्यपढ़ सकता है।
मात्रके लिये व्यक्ति स्वातन्यका मूलमंत्र गर्भित है-संसार ३६ नारी नरकी खान है । अत: उसको पुरुषोंकी के कोने-कोने में नहीं क देते और स्वयं स्वीकार नहीं भाँति व्रत धारण करनेका, पूजा-प्रक्षालन और श्रागम कर लेते, तब तक दुनियाको प्राजके भीषण नर संहारसे अंगोंके अध्ययनका पूर्णाधिकार है। इसलिये महिलाअोंका बचा सकना असम्भव है । यह स्व. दीनबन्धु एण्ड जके सम्मान करके उन्हें धार्मिक एवं सांसारिक अधिकारोसे निम्न शब्दोंसे भी प्रकट हैवंचित मत रखो।
संसारोद्धारक भगवान् महावीर स्वामीने भेदभावसे "जब तक यूरोप और अमेरिका के सर्वप्राणी समभाव रहिन होकर प्राणीमात्रके कल्याणार्थ जो शुभ सन्देश दिये के जैन सिद्धान्तको समझकर जीवनके अहिंसक आदर्शको ये उनसे जैन-साहित्य भरा पड़ा है । उक्त वाक्य तो उनके समझकर स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक पश्चिममें उत्पन्न दिव्य सन्देशके प्राभासमात्र है । जैनमाहित्यका पठन- हुए जात्याभिमान और साम्राज्यवाद, जो युद्ध और संहारके पाठन करनेसे ही उनमें सन्निविष्ट, अद्भुत तत्वचर्चा, अपूर्व दो मुख्य कारण है और जिनके कारण ही सारी मानवजाति शातिका मार्ग, सुन्दर मर्मस्पर्शी भाव और संसारको उन्नति अकथनीय वेदना पा रही है, नष्ट नहीं होंगे। के महान् शिखर तक पहुंचाने वाले अगणित आश्चर्यकारी वैज्ञानिक विवेचनोका सम्यक ज्ञान हो सकता है।
यदि हम भगवान् महावीरके सन्देश और उपदेशको भगवान् द्वारा स्थापित जीवनका महान अादर्श- समझे और उन्हें श्रपने जीवनमें उतारकर अहिंसा-समता जिसके कारण उनकी लोककल्याणमयी साधना भलीभाँति और अनेकान्तकी प्रतिष्ठा करें तो सर्वत्र सुख एवं शान्ति सफल हुई थी और मानवजातिके इतिहासमें सदाके लिए स्थापित होने में विलम्ब नहीं है।
क्या तीर्थकरप्रकृति चौथे भवमें तीर्थंकर बनाती है ?
(ले०-बा० रतनचन्द जैन, मुख्तार )
'जैनसन्देश' ता० १४ फरवरी १६४६, संख्या ३६, सौधर्मद्विकमें उपज कर पश्चात् मनुष्य होकर अवश्य तीर्थतथाहि पृ. श्रीमान् न्यायाचार्य पं. माणिकचन्दजीके लेख कर बन जायगा। को लक्ष्य करके शंका प्रकाशित हुई थी। इसका समाधान इस पर शंका हुई और समाधान भी हुश्रा। समाधान'जैनसन्देश' ता. २८ मार्च १६४६, संख्या ४४, पृष्ठ ५ कारका यह मत है कि तीर्थकर प्रकृति-प्रारम्भक-मनुष्यको पर प्रकाशित हुआ है। श्रीमान् न्यायाचार्य पं. माणिकचंद तीसरे ही भवमें तीर्थंकर बनना पड़ता है उसके लिये ज्यादा जीका यह मत है कि तीर्थकर प्रकृति अधिकसे अधिक चौथे से ज्यादा चौथा भव नहीं। और इसका हेतु यह दिया है भवमें तीर्थंकर बना ही देती है और हेतु यह दिया है कि तीर्थकर प्रकृति के प्रास्त्रवका काल ज्यादा से ज्यादा (जस) किसी मनुष्यने मनुष्य श्रायु बाँधली हो पुनः तीर्थकर "अन्नमुहर्त अधिक आठ वर्ष घाट दो कोटि पूर्व वर्ष का श्रास्रव किया तो वह भोगभूमिमें मनुष्य हो कर पुनः और तेतीस सागर है। यदि तीर्थकर प्रकृतिका प्रारम्भक