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सम्पादकीय
१. राष्ट्रीय सरकारका अभिनन्दन --
बहुत कुछ श्राश्वासनों, बलिदानों आशाओं और कष्टपरम्पराओंके बाद भारतमें जो राष्ट्रीय सरकार स्थापित हुई है उसका हृदयसे अभिनन्दन है। आशा है इस सरकार के द्वारा भारतकी चिर अभिलाषाएँ पूरी होंगी, उसे स्वतन्त्र वातावरण में सांस लेनेको मिलेगा, उसके सभी व्यक्रियाँका जीवन ऊँचा उठेगा, सबका याचार-विचार शुद्ध होगा, सब को बोलने और अपना उत्कर्ष सिद्ध करनेकी स्वतंत्रता प्राप्त होगी, व्यर्थका भेदभाव मिटेगा, अन्याय-अत्याचार दूर होंगे. न्यायका नाटक नहीं होगा और न वह श्राजकल की तरह मँहगा ही पड़ेगा, पारस्परिक प्रेम तथा विश्वसंयुकी भावना जोर पकड़ेगी और रिश्वतसतानी (घुसखोरी) तथा प्लेक मार्केट आदि अन्यायमागों से व्य प्राप्तिका जो बाजारा रफ गर्म होरहा है वह अपना अन्तिम सांस लेना हुआ शीघ्र समाप्त हो जायगा। यह सब कुछ होनेपर सुख- शान्ति और श्रात्म-समृद्धिकी जो लहर व्याप्त होगी वह इस सरकार को भारतीय जनताकी ही नहीं किन्तु विश्वभरकी नज़रों में अभिवन्दनीय बना देगी और भारतको फिरसे गुरुपदपर स्थापित करने में समर्थ होगी। और इसलिये वही सब इस सरकारका सर्वोपरि कर्तव्य है।
२. राजगृहके प्रबन्धकोंसे
बहुत दिनसे मेरी इच्छा थी कि मैं राजगृह (राजगिर ) नीपरजावर उदक और यहाँकी स्थितिका अध्ययन करूँ । तदनुसार २८ मार्च सन् १६४६ को प्रात:काल मैं न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठियाको साथ लेकर राजगृहके लिये रवाना हुश्री और वहाँ श्रगले ही दिन कोई ३ बजे दिनके पहुँच गया। अपने इस पहुँचनेकी सूचना पहले नीव के मैनेजर मुनीम रामलालजीको दे दी गई थी और साथ ही कलकत्ता बाबू छोटेलालजी तथा उनके भाई बालू नन्दलालजी को भी विषयमें लिख दिया था और उन दोनों पत्र भी मैनेजर साहबके पास स्थानादिके समुचित प्रबन्ध के लिये पहुँच गये थे परन्तु वह सब कुछ होते हुए
भी पहुँचनेपर कोई यथोचित प्रबन्ध नहीं देखा गया और इसलिये कई घंटे श्राफ़िसके बरामदे श्रादिमें यों ही बिताने पडे । रात्रिको सोने के समय मुनीमजीके प्रयत्नसे ला० कालूरामजी मोदी गिरीडी वालोंकी कोठीमें ठहरनेकी कुछ अस्थायी व्यवस्था हुई और इसलिये कुछ दिन बाद ही वहाँसे खिसकना पड़ा। मालूम हुआ इस वर्ष यात्रियोंकी बरावर इतनी भीड़ रही है जितनी कि आचार्य शान्तिसागर का संघ वहाँ पहुँचने पर हुई थी। इसी मार्च मासके धन् पर भी स्थानको बिनी रही।
जिस समय 栽 राजगृह पहुँचा उस समय दि० जैन धर्मशाला और मन्दिरके बीच वाली गली में तथा रा० ब० खीचन्द्रजी आदि बंगलोंके पास इतनी दुर्गन्ध थी कि वहीं खड़ा नहीं हुआ जाता था, दट्टियोंसे खुले स्थानपर पानी बहकर बंगलोंके सामने वाली जमीनपर इतना सदा हुया चोदा इकट्टा होगया था कि उसकी यह दम घुटा जाता बदबू था। उधर धर्मशाला श्रादिमें चारों थोर बीमार यात्रियों के कुड़ने करारने आदिको दुख भरी आवाजें सुनाई पड़ती थीं और उनके उपचारका कोई समुचित साधन नजर नहीं श्राता था । एक दिन तो एक कुटुम्बके सभी प्राणी ज्वरसे पीड़ित थे, कुछ बेसुध पड़े थे, कुछ पानीके लिये पुकार कर रहे थे पस्तु उन्हें कोई भी पानी देनेवाला नहीं था और न भीतरके गरम कमरे से निकालकर बाहर बरामदे में लिटाने चाला ही । उनके लिये इन दोनों कार्योंको रात्रिके समय पं० दरबारीलालजीने और मैंने मिलकर किया। मुनीमजी चर्चा करनेपर मालूम हुआ कि कोटीमें ग्रादमियोंकी कमी है और वे स्वयं धनवकाशये बहुत ही घिरे रहते हैं। इसलिये किस २ यात्रीको कैसे खबर रखें और क्या सेवा उन्हें पहुंचाएँ !
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बड़े
टीका विषय है कि यात्री जन तो सुख-शान्ति दुःखका की तलाश अपने घरोंये निकलकर नीचांकी शरण में आयें और वहां इस तरह की असहायावस्थायें पडकर अशान्ति तथा यातनाएँ भोगें एवं मंक्लेशपरिणामोंके द्वारा पाप उपार्जन करें ! वह स्थिति निःसंदेह वदी ही भयावह एवं