________________
१६६
अनेकान्त
[वर्ष ८
कार मच गया, माता-पिता एवं बन्धुबान्धवोंने बहुत द्वारा " वसुधैव कुटु बकम् " के महान् श्रादर्शको समझाते समझाया पर सब व्यर्थ; पितासे श्राज्ञा प्राप्त की और वनकी एवं अपने कर्तव्यको भूलकर कुमार्गपर जाने वालोंको
ओर प्रस्थान किया। 'ज्ञातखण्ड' नामक वनमें पहुँच कर सन्मार्ग पर लगाते। उनकी इन सभात्रोका नाम था “समव जिन-दीक्षा ग्रहण की और समस्त परिग्रह वस्त्राभूषण एवं सरण" । समवसरणका द्वार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र शरीरके भी ममत्वको त्यागकर तथा दिगम्बर बनकर घोर तथा तिर्यच तकके लिए उन्मुक्त था। वहां राजा रंक, गृही तपश्चाग क ने लगे।
साधु, ज्ञानी-अज्ञानी ऊंच-नीच पतित और पवित्र सभी सिद्धिकी प्राप्तिके हेतु उन्होंने अनेको कठिनाईयां झेली
उपदेश सुननेके समान अधिकारी थे , सभी एक साथ हिलआतताइयोके श्राक्रमणोंको सहन किया और जबतक उसे
मिलकर बैठते थे और भगवान्की सत्य अदिसा-प्रधान प्राप्त न कर लिया तबतक अनवरत वनमें मौन धारण करके
अनेकान्त वाणीका रसास्वादन करते थे , उनके उपदेशोंसे श्रात्मचिन्तन करते रहे। इस प्रकार बारह वर्ष तक सतत
अनेकको पूर्ण सत्यका अनुभव हुअा था और अनेकने सत्य असह्य तपस्या करनेके उपरांत उनकी दृष्टि में साम्य, बुद्धिमें
समझ कर तथा उसके अनुरूप अाचरण करके भगवानकी समन्वय, श्राचारमें अहिंसा तथा भावोमें सहनशीलता प्रकट
भाँन पूर्णज्ञान प्राप्त किया था। हुई। उनकी संपूर्ण शक्तयोका प्रवाह फूट निकला । वे तप्त
युगप्रवर्तक भगवान् वीरने अनेक देशदेशांतरोंमें भ्रमण कांचनकी भाँति शुद्ध होकर केवल ज्ञानी (सर्वज्ञ ) और
__ करके ज्ञानामनकी भारी वर्षा की थी और मनुष्योंके हृदयों
जा सर्वदर्शी होगये । हृदयमें सत्यका सूर्य प्रकाशमान होनसे
पर छायी हुई पशुताका नाश करके मानवको मानव बनाया उनके अन्तस् का तम विलीन होगया। विश्व प्रेमकी पतित
था। जनता उनके तप, त्याग, एवं ज्ञान से प्रभावित होकर पावन जाह बीका स्रोत उनके रोम-रोमसे बहने लगा। उनको अपना सच्चा हितैषी समझने लगी थी। उस समय
अनभव और मनन करनेके उपरान्त जब उन्होंने के लगभग सभी बडे-बडे राजा महाराजाअोंने भगवानकी अपनेको देशोद्धार एवं धर्म प्रचारके अनुरूप पाया तभी शरणमें अाकर उनसे व्रत नियमादिक धारण किये थे, और उन्होंने अपने जीवन के प्राप्त अनुभव-सत्य, अहिंसा प्रेम एवं इसी तरह अपने कल्याण मार्गको प्रशस्त बनाया। दुःख सहनेके श्रेष्ठ मार्गको अपने महान् आदशं द्वारा भगवान्ने तीस वर्ष तक चारों ओर विहार करके संसारके सम्मुख रखा । वे भारतवसुन्धरापर सर्वत्र पतितपावन सत्यधर्मका नाद सर्वत्र व्याप्त किया था । जो विहार करने लगे। भगवान्ने जीवोकी कठिनाइयोंको दूर सत्य सदासे है और सदैव रहेगा उसी सनातन सत्यका करनेका मार्ग सुझाया, उनकी भूलें बतलायीं उन्हें बन्धन अनुभव जगतके प्राणियोको कराकर उनमें सच्चे ज्ञानपर मक होकर श्रात्मकल्याण करनेका सदुपदेश दिया। उन्होंने श्रद्धा उत्पन्न की थी। स्वावलम्बन, स्वात्मनिर्भरता, संयम, अन्याय, अत्याचार, अन्धविश्वास श्रादि क्रिया-काण्डों साम्य, अहिंसा तथा विश्वप्रेमका उन्होंने वह असाधारण का निर्भीकता पूर्वक विरोध किया । बलिदान, सामाजिक निर्मल स्रोत बहाया था, जिसमे संसार में सुख-शान्तिका विशृङ्खलता, मानवकी मानवके प्रति निर्दयता, पाखण्ड तथा पवित्र वातावरण उत्पन्न होगया था। दुराग्रहका आवरण विदीर्ण करके संसारमें ज्ञान-सूर्यको श्रीवीर धर्मके प्रवर्तक थे अत: वे तीर्थंकर थे । सब उन्होने चमकाया और परस्पर समानताका संबन्ध स्थापित गुणसंपन्न थे और उन्हें वीर, अतिवीर, महावीर, वर्द्धमान, किया। इसके फल स्वरूप अनेको अनर्थ समूल नष्ट होगये सन्मति जैसे नामोंसे स्मरण किया जाता है।
और प्रायः सारा जन-समूह वीर भगवानका अनुयायी एवं भगवान् वर्द्धमान-द्वारा प्रचारित सत्यधर्म वैज्ञानिक भक्त बन गया।
धर्म-में सयाद्वाद अनेकान्त या अपेक्षावाद एवं जीव, अजीव दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीर जहा भी पहुँचते वहां श्रास्रब. बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व तथा उनके लिये महती सभाएं जुडती और उन सभाओंमें वे सम्यग्दर्शन सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्र श्राद दार्शनिक विषय संसारके प्राणीमात्रको अपने धारा प्रवाही अमूल्य उपदेशो प्रमुख रहते थे। जिनमें सुख-शांति, सत्य एवं सौन्दर्यके