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किरण ४-५]
मनुष्यनीके 'संजद' पदके सम्बन्धमें विचारणीय शेष प्रश्न
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षात इस मान्यतापर अवलंबित है कि स्त्रीवेदी जीवके शास्त्री व पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीके साथ मेरी जो पुरुषाकार शरीर होना भी संभव है और पुरुषवेदी उत्तर-प्रत्युत्तररूपसे तत्त्वचर्चा हुई उसमें मैं इस विषय जीवके स्त्रीश्राकार । अतएव स्वभावतः यह प्रभ होता का पर्याप्त विवेचन कर चुका हूँ । बार बार मैं इस है कि क्या कर्म सिद्धांतकी व्यवस्थाओं के अनुसार बातपर विचार करने के लिये प्रेरणा करता पाया हूँ ऐसा होना संभव है ? उक्त प्रकार भाव और द्रव्य कि क्या स्त्रीवेदीके पुरुष शरीरकी उत्पत्ति होना संभव वेदके वैषम्यकी संभावना दो प्रकारसे हो सकती है। है। किन्तु वे उस प्रश्नको टालते ही रहे । अन्ततः एक तो जीवनमें भाव वेदके परिवर्तनसे, या दूसरे सा० २६४३।४५ के जैनसन्देशमें मेरे एक लेखका उत्तर जन्मसे हो । प्रथम संभावनाका तो शास्त्रकारोंने देते हुए पं. कैलाशचंद्रजी शास्त्रीने वेद-वैष स्पष्ट वाक्यों एवं कालादिकी व्यवस्थाओं द्वारा निषेध उत्पन्न होनेकी यह व्यवस्था प्रकट की किही कर दिया है कि जीवनमें कभी भावभेद बदलही "यदि कोई स्त्रीवेदी स्त्रीवेदके साथ वीर्यान्तराय, नहीं सकता। दूसरी सम्भावनापर विचार करना भोगान्तराय और उपभोगान्तरायका प्रकृष्ट क्षयोपशम आवश्यक प्रतीत होता है। शरीर रचनाके जो नियम तथा साताके माथ गर्भ में जाता है और वहाँ यदि शास्त्रमें पाये जाते हैं उनके अनुसार भवर्क प्रथम वीयकी प्रधानता हुई तो उसके पुरुषका शरीर बन समयस जीवक जो भाव होते हैं उन्हीं के अनुमार जाता है । इसी प्रकार यदि कोई पुरुष वेदी उक्त वह योनिस्थल में पहुँच कर अपने शरीर और भवयवों अन्तगयों के साधारण क्षयोपशय तथा असाता वेदनीय
आदि कर्मो के साथ गर्भमें जाता है और उसे वहाँ कर्मविपाक भोगता है। इसी कारण अंगोपांग नाम रजोप्रधान उत्पादन सामग्री मिलती है तो उसके स्त्री कर्मोंके उपभेदों में केवल शरीरोपयोगी पदगल वर्गणा- का शरीर बन जाता है।"
ओंका नामोल्लेख मात्र किया गया है। उनकी अंग उनके इस प्रतिपादनपर मैंने निम्न शंकाएं विशेष रचना जीविपाकी प्रकृतियों के आधीन है। उपस्थित की कि:उत्पत्ति स्थानमें जीव बाहरसे केवल आहार आदि १-यदि स्त्रीवेदी जीवके उक्त जीवविपाकी वर्गणाओंके पुद्गल स्कन्ध मात्र ग्रहण करता है प्रकृतियोंका प्रकृष्ट क्षयोपशम व साताका उदय होते जिनसे फिर, यदि वह देव या नारकी है तो, अपनी हुए भी योनिस्थल में वीर्यको प्रधानता न हुई तो वैक्रियक शरीर रचना करता है, अथवा मनुष्य या उसके स्त्री शरीर उत्पन्न होगा या पुरुष ? यदि फिर तियच है तो औदारिक शरीर रचना । उसके जितनी भी पुरुष शरीर हो उत्पन्न होगा तब वोयंको प्रधानता इन्द्रियोंका क्षयोपशम होगा उतने ही इन्द्रियावयवोंका अप्रधानता निरर्थक है। और यदि स्त्री शरीर ही वह अपनी जाति अनुसार निर्माण करेगा । यदि होगा तो उस जीवका उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट क्षयोपशम उसके नो इन्द्रियावरणका क्षयोपशम भी हो तोही व साता-भसाताका उदय भकिचित्कर सिद्ध हुआ? वह द्रव्यमनकी भी रचना करेगा। इसी प्रकार जीवके २-माधारण क्षयोपशमसे जो कार्य होते हैं जो भाववेदका उदय होगा उसीके अनुसार वह वही कार्य प्रकृष्ट क्षयोपशमसे और भी उत्तम रीतिसे अपर्याप्तकाल में अपने शरीरकी अवश्य रचना करेगा होना चाहिये । फिर उसमें कार्यकी विपरीतता क्यों और जीवन में उसी अवयवसे वह अपना वेदोदेय और किस सीमापर भाजाती है? सार्थक करेगा । भाव और द्रव्यको इस आनुषंगिक ३-भोगभूमिमें उक्त कर्माका प्रकृष्ट क्षयोपशम व्यवस्थाके अनुसार स्त्री वेदी जीवके पुरुष शरीरकी व साताका उदय होता है या साधारगा क्षयोपशम और रचना असंभव प्रतीत होती है । पं० फूलचन्दजी असाताका उदय ? यदि प्रकृष्ट होता है तो वहां स्त्रीशास्त्री, पं. जीवन्धरजी शास्त्री, पं.राजेन्द्रकुमारजी वेदियोंका शरीर भी पुरुषाकार बनना चाहिये, भोर