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किरण ४-५]
जैनसंस्कृतिकी सप्ततत्व भौर षड्व्यव्यवस्थापर प्रकाश
जाता है कि जहां सांख्यदर्शनमें बुद्धि आदि सभी रूपमें स्वीकार करके उनका असत् स्वरूप अविद्याके तत्वोंको पुरुष संयुक्त प्रकृतिका विकार स्वीकार किया साथ संयोग, इस संयोगके आधारपर उन चित्रशक्तिगया है वहाँ जैनदशेनमें कुछको तो प्रकृति संयुक्त विशिष्टतत्वोंका सुख-दुःख तथा शरीर-संबन्धकी परंपरा पुरुषका विकार और कुछको पुरुष सयुक्त प्रकृतिका रूप संसार, इस संसारसे छुटकारा स्वरूप मुक्ति और विकार स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह है कि मुक्तिका कारण ये सब बातें स्वीकार की गयी हैं। सांख्य दर्शनके पञ्चीस तत्वोंको जैनदर्शनके जीव, वेदान्तदर्शनमें परब्रह्मको सत् और संसारको असत् मजीव और बन्ध इन तीन तत्वों में संग्रहीत किया जा माननेकी जो दृष्टि है उसका सामञ्जस्य जैनदर्शनकी सकता है। इस प्रकार सांख्यदर्शनमें पच्चीस तत्वों के काणानुयोगदृष्टि (उपयोगितावाद)से होता है क्योंकि रूपमें नाना चिनशक्ति विशिष्ट नत्व और इनका जैनदर्शनमें भी संसार अथवा शरीरादि जिन पदार्थों शरीरसंबन्धपरम्परा अथवा सुख-दुःख परम्परा को द्रव्यानुयोग ( वास्तविकतावाद ) की दृष्टिसे सत् रूप संसार ये दो तत्व तो कंठोक्त स्वीक र किये गये स्वीकार किया गया है उन्हींको करणानुयोगोकी दृष्टि हैं। शेष संसारका कारण, संसारका सर्वथा विच्छेद से असत् स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह है कि स्वरूप मुक्ति और मुक्तिका कारण इन तीन तत्वोंकी जैनदर्शन में भी करणानुयोगकी दृष्टिसे एक चितशक्तिमान्यता रहते हुए भी इन्हें पदार्थमान्यतामें स्थान विशिष्ट आत्मतत्वको ही शाश्वत् होनेके कारण सत् नहीं दिया गया है।
स्वीकार किया गया है और शेष संसारके सभी तत्वों ___ योगदर्शनमें नाना चित्शक्तिविशिष्टतत्व, उनका को अशाश्वत्, आत्मकल्याणमें अनुपयोगी अथवा संसार, संसारका कारण, मुक्ति और मुक्तिका कारण बाधक होनके कारण असत् (मिथ्या ) स्वीकार इन तत्वोंकी मान्यता रहते हुए भी उसकी पदार्थ किया गया है। व्यवस्था करीब करीब सांख्यदर्शन जैसी ही है। विशे- इसी प्रकार चितशक्तिविशिष्ट तत्व, उनका पूर्वोक्त षता इतनी है कि योगदर्शन में पुरुष और प्रकृतिके संसार और संसारका कारण इन तीन तत्वोंको स्वीसंयोग तथा प्रकृतिकी बुद्धि आदि तेवीस तत्वरूर होने कार करने वाले मीमांसादेर्शनमें तथा इनके साथ २ वाली परिणतिमें सहायक एक शाश्वत ईश्वरतत्वको मुक्ति और मुक्तिके कारण इन दो तत्वोंको मिलाकर भी स्वीकार किया गया है और मुक्तिके साधनोंका पांच तत्वोंको स्वीकार करने वाले न्याय, वैशेषिक विस्तृत विवेचन भी योगदर्शनमें किया गया है। और बौद्ध दर्शनों में भी इनका जैनदर्शनकी तरह जो
सांख्यदर्शनकी पदार्थव्यवस्था योगदर्शनकी तरह तत्वरूपसे व्यवस्थित विवेचन नहीं किया गया है वह वेदान्तदर्शनको भी मान्य है लेकिन वेदान्तदर्शनमें इन दर्शनोंके भिन्न २ दृष्टिकोणका ही परिणाम है। उक्त पदार्थव्यवस्थाके मूल में नित्य, व्यापक और एक इस संपूर्ण कथनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि परब्रह्म ना क तत्वको स्वीकार किया गया है तथा जैनदर्शनकी सप्ततत्वमय पदार्थव्यवस्था यद्यपि उक्त संसारको इसी पर ब्रह्मका विस्तार स्वीकार किया गया सभी दर्शनोंको स्वीकार्य है परन्तु जहां जैनदर्शनमें है इस प्रकार वेदान्तदर्शनमें यद्यपि एक परब्रह्म हीको उपयोगितावादके आधारपर उसका साङ्गीण और तत्वरूपसे स्वीकार किया है परन्तु वहाँपर ( वेदान्त- व्यवस्थित ढंगसे विवेचन किया गया है वहां दूसरे दर्शनमें ) भी प्रत्येक प्राणीके शरीर में पृथक् २ रहने दर्शनों में उसका विवेचन सर्वाङ्गीण और व्यवस्थित वाले चिनशक्तिविशिष्टतत्वोंको उस परब्रह्म के अंशोंके ढंगसे नहीं किया गया है।