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अनेकान्त
[वर्ष ८
पाँचवें संवरतत्वका अर्थ संसार के कारणभूत कारण उनका भिन्न २ दृष्टिकोण ही है । तात्पर्य यह है पात्रबका रोकना भोर छठे मिजंरातत्वका अर्थ संबद्ध कि सारभूत-मुख्य-मलभत या प्रयोजनमत पदार्थीको कों अर्थात संमारको समूल नष्ट करनेका प्रयत्न तत्वनामसे पुकारा जाता है। यही सच है कि जैन करना स्वीकार किया गया है। तात्पर्य यह है कि जब दर्शनके दृष्टिकोण के मुताविक जगतमें नाना तरह के पूर्वोक्त संसारके आत्यन्तिक विनाशका नाम मुक्ति है दूसरे २ पदार्थोंका अस्तित्व रहते हुए भी तत्व शब्दके तो इस प्रकारकी मुक्तिकी प्राप्ति के लिये हमें संसार इसी अभिप्रायक गनमें रखकर प्राणियों के प्रात्यके कारणोंका नाश करके संसारके नाश करने न्तिक सुख (मुक्ति) की प्राप्ति में जिनका समझ लेना का प्रयत्न करना होगा, संवर और निर्जरा इन दोनों प्रयोजनभूत मान लिया गया है उन पूर्वोक्त चित्तत्वोंकी मान्यताका प्रयोजन यही है और चूकि इन शक्तिविशिष्टतत्व स्वरूप जीव कार्माण वणास्वरूप दोनों हत्वोंको सातवें मोक्ष तत्वकी प्राप्तिमें कारण अजीव तथा आस्रव और वियोगके कारणस्वरूप संवर माना गया है इसलिये तत्वव्यवस्थामें मोक्ष तत्वके और निर्जराको ही सप्ततत्वमयपदार्थव्यवस्था में पहिले ही इन दोनों तत्वोंको स्थान दिया गया है। स्थान दिया गया है। संवरको पाँचवां और निर्जराको छठा स्थान देनेका साँख्य दर्शनके दृष्टिकोण के अनुसार मुक्तिप्राप्ति मतलब यह है कि जिस प्रकार पानीसे भरी हुई नाव के लिये चितशक्तिविशिष्टतत्वस्वरूप पुरुष तथा इनकी को इवनेसे बचाने के लिये नावका बुद्धिमान मालिक शरीरसंबंधपरंपरारूप संसारकी मूलकरण स्वरूप पहिले तो पानी आने में कारणभूत नावके छिद्रको बंद प्रकृति और इन दोनोंके संयोगसे होनेवाले बुद्धि करता है और तब बादमें भरे हुए पानीको नावसे आदि पंचमहाभूत पर्यन्त प्रकृतिविकारोंको समझ बाहर निकालने का प्रयत्न करता है उसी प्रकार मुक्तिके लेना ही जरूरी या पर्याप्त मान लिया गया है इसलिये इच्छक प्राणीको पहिले तो कर्मबन्ध में कारणभूत सांख्यदर्शनमें नाना चितशक्तिविशिष्ट तत्व, इनका आस्रवको रोकना चाहिये जिससे कि कर्मबन्धकी शरीरसम्बन्धपरंपरा अथवा सुख-दुख परंपरारूप भागामी परंपरा रुक जाय और तब बादमें वद्ध कमों संसारका कारण, संसारका सर्वथा विच्छेदस्वरूप को नष्ट करनेका प्रयत्न करना चाहिये।
मुक्ति और मुक्तिका कारण इन पाँचों तत्वोंकी मान्यता ___ यहांपर इतना और समझ लेना चाहिये कि पूर्ण रहते हुए भी उसकी (सांख्यदर्शनकी) पदार्थ व्यवस्था संवर होजानेके बाद ही निजराका प्रारम्भ नहीं माना में सिर्फ पुरुष, प्रकृति और बुद्धि आदि तेवीस प्रकृति गया है बल्कि जितने अंशोंमें संवर होता जाता है विकारोंकोही स्थान दिया गया है। उतने अंशों में निर्जराका प्रारम्भ भी होता जाता है जैनदर्शनकी सप्ततत्व स्वरूप पदार्थव्यवस्थाके साथ इस तरह पानी पानेके छिद्रको बंद करने आर भरे यदि सांख्यदर्शनकी पच्चीस तत्वस्वरूप पदार्थव्यस्थाका हुए पानीको धीरे २ बाहर निकालनेसे जिस प्रकार स्थूल रूपसे समन्वय किया जाय तो कहा जा सकता नाव पानी रहित हो जाती है उसी प्रकार कर्मबन्धके हे कि जैनदर्शनके जीवतत्वके स्थानपर सांख्पदशेनमें कारणोंको नष्ट करने और बद्ध कर्मोंका धीरे २ पुरुषतत्वको और जैनदशनके अजीव तत्व (कामर्माण विनाश करनेसे अन्त में जीव भी संसार (जन्म-मरण वर्गणा) के स्थानपर सांख्यदर्शनमें प्रकृतितत्वको अथवा सुख-दुःखकी परंपरा )स सर्वथा निर्लिप्त स्थान दिया गया है तथा जैनदर्शनके बन्धतत्वका यदि होजाता है।
विस्तार किया जाय तो सांख्यदर्शनकी बद्धि आदि - सौल्य आदि दर्शनोंको यद्यप पूर्वोक्त पांचों तत्व तेवीस तत्वोंकी मान्यताका ससके साथ समन्वय मान्य है परन्तु उनकी पदार्थव्यवस्थामें जैनदर्शन किया साथ और परस्पर जो मतभेद पाया जाता है उसका दोनों दर्शनोंकी मान्यताओं में सिर्फ इतना भेद रह