________________
किरण ४-५]
एक ऐतिहामिक अना: साम्प्रदारिक निर्णय
१७१
की श्राज्ञा दी। अठारहो पान्तों के प्रमुम्ब श्रीवैष्णव इकट्टा इम आशापत्र में कई बातो पर महत्वपूर्ण प्रकाश हुए, उनके सब श्राचार्य और प्रधान मठाधीश भी पाये, पड़ता है। यह सट है कि उस समय विजपनगर साम्राज्य इनके अतिरिक्त मातक , मोस्तिक तथा अन्य विविध में जैनी सर्वत्र फैले हुए थे, और विशेष कर श्रानेगुंडी स-प्रदायों के प्राचार्य, मबहीवों और जातियों के मुखिया दोसनपट्टन, पेनगोंडा, और कल्लदा में तो वे अत्यधिक सब ही मामन्त मरि नया अन्य विविध श्रेणियों और वो प्रभावशाली थे। ऐमा प्रतीत होता है कि अठारहो नाडुओं के प्रधान प्रतिष्ठित व्यक्ति एक त्रन हए । सब ही स्थानोंमे (लिलो ) के श्रीवैष्णव इन ' भव्यो'के कतिपय सामान्य जैनियोंक भी मुखिया लोग पहुँचे थे । सबके दर्बार में इकट्र एवं विशेषाधिकारों का प्रयास विरोध कर रहे थे । झगड़ा हो जाने पर महाराज बुक्काराय ने जैनियोंका हाथ वैष्णवोंके. इतना अधिक बढ़ गया गाकि वह स्थानीय अथवा प्रान्त य हायमें देकर यह घोषणा की कि
शामको, या दोनों धर्मों और समाजोंके नायकों के मान का "जैन दर्शन पूर्ववत् 'पञ्चमहाशब्द' और 'कलश' का न रह गया था और विजयनगर सम्राट के मम्मग्व उपस्थित अधिकारी है। यदि भक्तों ( वैष्णवो) के द्वारा भव्यों किया गया । महाराज ने भी पूरी जाँच पड़ताल के बाद ( जैनों ) के दर्शन ( धर्म ) को किसी प्रकार की भी क्षति विशेष रूपमे बुलाये गये एक सार्वजनिक दर में, दोनों ही या लाभ पहूँचता है तो वैष्णन लोग उम अपने ही धर्म धर्मा और समानों के प्रतिनिधियों, प्रधान राजकर्मचारियो, की क्षति या लाभ समझ । श्रीवैष्णव का श्राज्ञा दी जाती और अन्य सभी श्रेणियाँ तथा बाँके मुखयों की उपस्थिति है कि वे इस शामन ' ( राजाज्ञा ) का माम्राज्यको सभी में अपना यह महत्वपूर्ण निर्णय दिया जो निष्पक्ष होने के बस्तियों में घाषत और प्रकाशन कादं कि जब तक सूर्य साय माय न्यायपूर्ण भी था। सभी ने उसे बिना किमी और चन्द्रमा विद्यमान हैं बैष्णवधर्म जैनधर्मकी रक्षा प्रतिवाद के स्वीकार कर लिया । और इस प्राज्ञापत्र को करेगा। वैष्णव और जैन श्राभन्न शरीर है, उनके बीच श्रवणबेलगोल तथा कल हाके अतिरिक्त साम्राज्य की सभी कभी कोई भेदभाव होनादी नही चाहये , जेनांगण प्रत्येक बस्तियों में स्वयं वैष्णवो द्वारा शिलाखंडीपर अङ्कित कराने घर पीछे एक एक 'हट' ( मुद्राविशेष ) एकत्रित करके को राजाज्ञा भी। और उदाराशय जैन श्रेष्ठ बसविमट्टी को, देंगे और वैष्णव लोग एकात द्रव्य के एक भागस श्रवण जो इस मामले में वादा पक्ष का प्रधान प्रतिनिधि पा, जेन वेलगोला की रक्षार्थ बोस रक्षक नियुक्त करेंगे और शेष तथा वाव दोनों दमा जी ने उपी दार में सर्वसम्मति द्रव्यस साम्राज्य भर के जीर्ण शर्ण जिनालयो का मरम्मत से सर्वधर्मनायक की उपाधि प्रदान की। पुताई सफाई आदि करायेगे। जैनीको इच्छानुसार तिरुमले के तातय्य नामक प्रतिष्ठित सजन को यह कार्य भार सोपा अपने इस श्रादश निर्णय-द्वारा महाराज बुक्कारा पने गया । इसपर जेनीगण प्रतिवर उक्त द्रव्य प्रदान करके एक अल्पसंख्यक समुदायको राज्याश्रय प्राप्त बहुसंख्यक पण्य और यशके भागी होंगे नया वैष्णव गगा उनकी रक्षा समुदायके अत्याचारसे रक्षा भी की, साथ ही साथ उक्त करेंगे। जो व्यक्ति इस नियम तोड़ेगा वह राजद्रोही, बहसंख्यक समुदायक स्वत्वों एवं अधिकारों पर भी कोई संघद्रोही और समुदाय द्रोही ममझा जायगा।
श्राप त नहीं किया। दोनों के बीच मंत्री और सद्भाव स्थापित कल्लेहा निव सी दावी सेट्टीके. सुपत्र बवि सेट्टीने जिसने कर दिया, धार्मिक विदेष और तजन्य माम्प्रदायिक झगड़ो कि महाराज की सवामें जेनीकी श्रागस प्राथनापत्र भेजा था का वह समय के लिये अन्न करादिया । देशका अान्तरिक तिरुमले के नातय्य द्वारा इस श्राशापत्रका प्रचार करवाया। शान्ति की श्रार में गज्य निश्चिन्त होगया और अपना
और दोनों ही समाजो ( जैन एवं वैष्णव ) ने बमवि सट्टा समय तथा शाक्त बाह्य शाम लोहा लेने तथा व्यापार को 'संघनायक' (सर्वधर्मनायक) पदसे विभूषित किया। श्रादि द्वारा गमको ममद्ध और शक्तिशाली बनाने के लिये 3 Saletore- Medieval Jainism ch. VIII,
व्यय करने में समर्थ हा सका । किसी भी एक समुदायका p.288-292.
अन्याय पूर्ण पक्षात कर के बह दूसरे समुदायको राज्यका