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अनेकान्त
[वर्षे
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मनुष्य जातिके योनिनी जीवोंके लिये सत्प्ररूपणा योगमार्गणामें काययोगके प्रसंगमें किया है, अतएव सूत्र में 'मनुष्यना' व राजवातिक पृ० ३३१ तथा उक्त विभागमें कायगत विशेषताभोंकी ही प्रधानता नावकाएर गाथा १५८ में 'मानुषी' शब्दका ग्रहण स्वीकारकी जासकती है। यदि सूत्रकार उक्त कथन में पाया जाता है। इस विभागके लिये जो सामान्य गतिकी या भाववेदकी प्रधानता स्वीकार करना चाहते 'यानिनी' शब्दका प्रयोग किया गया है उससे सुस्पष्ट थे तो उन्होंने गति मार्गणा या वेदमार्गणामें यह है कि उक्त विभागमें दृष्टि शरीरगत भेदोंपर ही रखी प्रतिपादन क्यों नहीं किया और काययोगके सिलसिले में गई है और यही बात गाम्मटमारकी समस्त टीकाओं ही क्यों किया? -दोनों संस्कृत और एक हिन्दी-में तिथंच योनिनी ३-जहां मनुष्य-मनुष्यनी विभागसे कथन किया तथा मनुष्य योनिनी दोनोंका 'द्रव्यस्त्री' अर्थ करके गया वहां सर्वत्र दोनोंके चौदह गुणस्थान कहे गये प्रकट की गई है। यथा 'पर्याप्त मनुष्यराशेः त्रिचतुर्भागो हैं, और जहां भाववेदी स्त्री या पुरुषका कथन है वहां मानषीणां द्रव्यत्रीणां परिमाणं भवति।
केवल नौवें गुणस्थान तकका ही है, उससे ऊपर इस प्रकार शास्त्रकारोंका मनुष्यनोसे अभिप्राय जीव अपगतवदी कहा गया है । इसके लिये वेदमाद्रव्यस्त्रीका ही मिद्ध होता है । पंडित फूलचन्दजी गंणा देखिये । अब यदि योगमार्गणा और वेदमागणा शास्त्रीने १४ अक्तूबर १९४३ के जैनसन्देशमें अपने दोनोंमें भाववेदकी अपेक्षा ही प्रतिपादन है, तो इस एक लेख द्वारा इसे 'जीवकाण्डके टीकाकारोंकी भूल' सुव्यवस्थित भिन्न दो प्रकारकी कथन शैलीका कारण बतलानका प्रयत्न किया । किन्तु तबसे मेरे उनके क्या है ? बीच उत्तर प्रत्युत्तर रूप जो दश लेख प्रकाशित हुए ४--यदि मनुष्यनीक गुणस्थान प्रतिपादनमें ऐसे हैं उनके अनुसार उक्त टीकाकारों के कथनमें कोई भूल जीव ग्रहण किये गये हैं जिनके शरीर पुरुषाकार मिट नहीं होती। इस विषयपर मेरा अन्तिम लेख और वेदोदय स्त्रीका, तो जिन मनुष्योंका शरीर ५७-५-२५ के जैनसन्देशमें प्रकट हुआ था । तबसे सीका और वेदोदय पुरुषका होगा उनका समावेश फिर पण्डितजीका उस विषयपर काई उत्तर प्रकट मनुष्यनी वर्गमें है या नहीं ? यदि है तो उनके भी नहीं हुधा।
चौदहों गुणन्यानोंका निषेध सूत्रके कौनसे संकेतमे शास्त्रकारोंके जाति संबंधी भेदोंकी व्यवस्थामें फलित होता है ? और यदि उनका समावेश मनुष्यनी निम्न बातें ध्यान देकर विचारने योग्य हैं- वर्गमें नहीं होता तो पारिशेष न्यायमे उनके पर्याप्त
१-पर्याप्त मनुष्य जाति केवल दो भागों में मनुष्य कथित चौदहों गुणस्थान मानना ही पड़ेंगे। विभाजित की गई वे-मनुष्यनी अर्थात् स्त्री और यदि किसी अन्य सूत्र द्वारा उनका और प्रकार नियमन शेष प्रथात पुरुष । इससे मनुष्यकी शरीराकृति होता हो तो बतलाया जाय? अनुसार केवल दो जातियोंका अभिप्राय पाया जाता ५-षटूखंडागम सूत्रों व गोम्मटसारकी गाथाओंहै । यदि सूत्रकारकी दृष्टि भाववेदपर होती तो में यदि कहीं भी स्त्रीके छठे आदि गुणस्थानोंका निषेध नपुसक वेदकी दृष्टिसं भा मर्याप्त मनुष्य राशिके व केवल पांच ही गुणस्थानोंवा प्रतिपादन किया गया भीतर एक अलग विभाग निर्दिष्ट किया गया होता, हो तो उन उल्लेखोंको प्रस्तुत करना चाहिये। यदि जैसाकि वेदमागणामें पाया जाता है। यदि यहां इन ग्रंथों में ऐस सल्लेख न पाये जाते हों तो यह भाववेदकी ही अपेक्षा विभाग किया गया है तो देखनेका प्रयत्न करना चाहिये कि सिद्धान्तमें यह पर्याप्त नपुंसक वेदी मनुष्यका अलग विभाग क्यों मान्यता कबसे व कौनसे ग्रंथाधार द्वारा प्रारंभ नहीं किया गया?
होती है? २-पूर्वोक्त समस्त विभाग व प्रतिपादन सूत्रकारने द्रव्यस्त्रीक छठे आदि गुणस्थानोंके निषेधकी