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कौनसा कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है ?
--(लेम्बक-यापं० दरबारीलाल जैन कोठिबा)
-me -- लोयपरागानी' में प्राचार्य श्रीयातरमने 'गडल- उल्लेख नहीं मिला। याद पृजपाद निपाके पूर्ववत है गिरि' में श्री अन्तिमकेवली अंदर की मिट्ट (मक ) दाना तो कराटनागरिक! मरमे पुराना नामोल्लेख उन्दीका बतलाया है । जैमा कि उसके निन्द वाक्यसे प्रकट हे- समझना चाहिए। कुण्टुन गिम्मि रिमी केवल गगाणीम मिरची मिद्ध।
अब देखना यह है कि जिम कुण्डलागारका नामोल्लेख -निलोयप० प्रा० ४, गाथा १४७६ !
पृज्य गद स्वामी कर रहे हैं वह कौनमा है और कहा है? इससने कुछ लोगों का विचार है कि यहा उर्म
क्या उसके दूसर भी नाम है ? मलायाणगानम उन पंच "कुण्डलांगार' का उल्लेख किया गया है जो मध्यपान्त के
पदाहियाका नाम और वम्यान दिये गये है जिन्हें पंच दमोह शहर के पास कुरालग:- एलपर है और जिसे
शैल' कहा जाता है और जो राजगिरि (गनगदी) के पास अाजकल अतिशयक्षेत्र कहा जा । है । अतएन उपयुक्त
है । वे इस प्रकार हैप्रमाणोल्लेव के आधार पर से अब उसे सिद्धक्षेत्र मानना और
च सम्मो पुवाए रिमिमलो दाहिणाए वेभागे। वो:पत कर देना नाहिए।
गाइपिदिदिमा विउलो दोगिया तिको गट्रिदायाग ।। गत बर्ष जब विद्वन्याम्पका कट नाम अधिवेशन हुआ
चावमारनछोहिणो बरुग्णागिगल मोदिविभागेस था, तब इमक निर्णय के लिये तीन विद्वानी की एक ममिति
ईमागगाए पंडू वग्गा सम्वे कुमांगपरियणा | बनाई गई थी। उसमें एक नाम मरा भी रखा गया था।
१-६६, ६७४ अतएव यह श्रावश्यक था कि इमका अनुमन्धान किया
दांशपगग में निम्नप्रकार उन पाचका उल्लेग्व हैजायक निलायपरगानीके उपयुक्त उल्लेग्व में काम कुण्डलागार में अन्तिम केवली श्री श्रीधर का निवारण हुश्रा ऋषिपूर्वा गिरिम्नत्र चतस्रः मनिरः । है ? और उमको मिद्धक्षेत्र बतलाया गया है ? अतः अाज
दिग्गजेन्द्र इवेन्द्रम्य ककुभं भूषयत्यलम ।। हम अपने अनुसन्धान विचार और उसके निष्कर्षको वैभाग दक्षिणामाशां त्रिकोणाकृ'तराश्रितः । विद्वानोंके सामने प्रस्तुत करते हैं ।
दक्षिणापर्गदमध्यं विपुलश्च नदाकृतिः । पाम जैनमादित्य में 'कुण्डल गरि' के नामसे उसके
मजचापाकृतिम्तिम्रो दिशो व्याप्य बलाहकः । मिर्फ दो उल्लेख मिलत है । एक ता प्रति निलोय रागनी
शोभते पाण्डको वृत्तः पूर्वोत्तदिगन्तरे ।।
३-५३ से ३-५ तक। गत दी है और दुमग पूज्यपादको निर्वागभाक' के अन्नगत है जो इस प्रकार है
वीर मन स्वामीने भवला और नगधवलामें उन्हें निम्न द्रोणीमति प्रवरकुण्डल-मेढ़ के च,
प्रकार में उल्लेखित किया हैवंभारपवतनले वर्गमद्धकूटे । ऋषिगरिन्द्राशायां चतुरम्रो याम्यदिशि च वैभारः। मृष्याद्रिक च विपुलादि-बलाह के च, विपुलगिग्नैिऋत्यामुभो त्रिकोगी स्थिती नत्र ।। विन्ध्ये च पौदनपुरे वृषदीप के च। धनुगकाश्छिन्नो वारुगा-वायव्य-मोमदिक्ष ततः।
-दशभक्त्या० पृ. २३३। वृत्ताकृतिगशाने पागइम्म कुशागवृताः। इन दो उल्लेखों के अतिरिक्त हमें अभी तक और कोई ---धवला (म.) १०६२, जयधवला (मु०) पृ. ७३ ।