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आधुनिक जैनसाहित्य में प्रगति क्योंकर हो ?
( लेखक - मुनि कान्तिसागर, साहित्यालङ्कार )
प्राचीन जैन साहित्यवर भारतीयोंको, खासकर जैनों की बड़ा ही गाँव है । सचमुच में होना ही चाहये, पर प्राचीन साहित्यपर इम तो गौरव मनात दी हैं, लेकिन श्रागामी सन्तान किसपर गौरव करेंगी, जबकि उनके लिये वर्तमान साहित्य न होगा | अतः याधुनिक प्रगतिशील युग में नूतन जैन साहित्य निर्माण करनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति होना अत्यन्त आवश्यक दो नहीं, प्रत्युत अनिवार्य है। वर्तमान में बाह्य साधनों तथा विचारोंकी कोई कमी नहीं और न विद्वानोंकी कमी है फिर भी न मालूम इस ओर जैन विद्वानोंका ध्यान आकृष्ट क्यों नहीं होना । यद्यपि मेरा मन्तव्य नहीं है कि सभी सज्जन इस कार्यमें व्यस्त रहें और प्राचीन साहित्योद्वार कार्य बन्द कर दिया जाय। मेरी राय में तो दोनों कार्य क्या प्राचीन, क्या अर्वाचीन तेजीक साथ दनिचाहिए, और यह इतर समाजबालीको मालूम न होने देना चाहिये कि जैन लोगोका एक मात्र प्राचीन है ही माहित्य - श्राधुनिक तो है ही नहीं। अर्थात् दो समान प्रगति दी। फिलहाल में हम बहुत से ऐस विषय देखते हैं जाधुनिक जैन साहित्य में नहीं पाये जाते । जैमाक सम्पूर्ण जैनइतिहास, जैनभूगोल, जैनमादित्य, सर्वदेशीय एवं प्रान्तीय, जैन कला आदि । उपरोक्त विषयों नतन साहित्यका दोना श्राधुनिक जैन समाज के लिये अत्यन्त आवश्यक है । या स्पष्ट शब्दों में यो कहना चाहिये कि उक्त साधन जैन धर्मोन्नति महत्वपूर्ण सोपान है- जैनंतरोको जैनधर्मका परिचय करानेके लिये प्रकाशका काम दे सकते हैं ।
जैन साहित्य में सर्वविषय के साधन दांत हुए ऐसे विषयों में प्रगति न करना बड़ी भारी भूल है। हालांकि श्राधुनिक जैन साहित्य
रूप में उपलब्ध होता है पर अपेक्षाकृत है। देखिये, हिन्दी साहित्यकी ५० वर्ष पूर्ण कितनी दयनीय हालत थी. अब आज उम हिंदी वाङ्गमय
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संसाररत करनेसे स्पष्ट विदित होता है कि वर्तमान हिन्दी साहित्यने अभूतपूर्व उन्नति कर भारतीय साहित्य में उच्च स्थान प्राप्त किया है, जिसमें कई कई तो ऐसे विषय है जो प्राचीन साहित्य में दृष्टिगोचर तक नहीं होते है फिर भी हिन्दीके सुयोग्य विद्वानांने अपनी मातृभाषाका भंडार परिपूर्ण किया है और देशके योग्य श्रात्मगौरव में महत्वपूर्ण वृद्धि की है। जैविद्वानोंके लिये हिन्दी साहित्यिकाके प्रति स्पर्धा होनी चाहिये ।
aatee एक प्रश्न यह उपस्थित हो सकता है कि हरएक देशमें इतनी साहित्यिक वृद्धि क्यों होता है ? अर्थात् साहित्य उत्तरोत्तर वृद्धिको क्यों प्राप्त होता है ? इस प्रश्नको सोचने के बाद मस्तिष्क यहां उत्तर देता है कि प्रत्येक देशकी साहित्यिक उन्नति अवनति एकमात्र उस देश के आलोचकोंपर अवलम्बित है । श्राप देख सकते है - योतीय माइत्य १०० वर्ष पहले कितनी गिरी हुई दालत में नजर आता था और याज पूर्णोन्नति के शिवरपर आरूढ है । इसका प्रधान कारण क्या है ? यही है कि वहां सच्चे थौमें आलोचकोंकी बाहुल्यता है । जबकि भारत में उन आलोचककी कमी है जो साहित्यके prus faress समान योग्यता रखते हो। इससे पाठक यह न सम कि भारत में ऐसे समीक्षकांका अभाव है पर कमी तो अवश्य है। यहां हालत हमारे जैन साहित्यकी है। जब तक कि जैन समाजमे पाश्चात्य प्रणालीके समीक्षक
पैदा न होंगे तब तक श्राधुनिक जैन साहित्यका विपुल निर्माण अथवा पूर्णोत्थान कदापि संभव नहीं । वतमान में आलोचक इस प्रकार की आलोचना करनेमें बहुत ही कुशल है - जैसेकि लेखककी तारीफ, प्रकाशककी प्रशंसा, सुन्दर छपाई बढ़िया कागज, लेकिन उन्हें यह मालूम होना चाहिये कि यह श्रालोचनाका रूप नहीं है मात्र परिचय है। आलोचना क्या और कैसी होनी चाहिये, इस सम्बन्ध