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रत्नकरण और माप्तमीमाँसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है
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लेखका विषय हमारी चिसन-धारामें अधिक निकटवर्ती है' 'प्रो. सा. की रीति-नीति ही कुछ ऐसी बन गई है कि वे इसीसे पहले उसे लिया गया है। इसपर मैंने उनसे पूछा मुख्य विषयको टालनेके लिये कुछ अप्रयोजक प्रश्न या था कि 'वह चिन्तन-धारा कौनसी है ? और उसमें इस प्रसंग अथवा गौण बातें प्रस्तुत कर देते हैं और स्पष्ट लेखसे क्या निकटवर्तित्व है ? वास्तवमें तो मेरे पहले लेख्का तथ्यको झमेले में डाल देते हैं। इसके प्रमाणस्वरूप मैंने विषय ही उनकी चिन्तन-धारामें अधिक निकटवर्ती जान पं० फलचन्दजी शिद्धान्तशास्त्रीको उस चर्चाका उल्लेख पड़ता है, जहाँ नियुक्रिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र किया था, जो वेद-वैषम्यको लेकर 'जैन-सन्देश' में कई को दो पृथक ब्यक्रि स्पष्ट करके बतला दिया गया है और महिनों तक चली थी और जिसे विद्वान पाठकोंने दिलचस्पीके जिन्हें कि प्रो० सा० ने एक व्यक्रि मान कर अपने विलुप्त साथ पढ़ा होगा। इसकी पुष्टिमें भी अपनी स्वयंकी प्रत्यक्ष अध्यायकी इमारत खदी की थी।' इसपर अब श्राप लिखते देखी हुई कलकत्ताकी चर्चाका निर्देश किया था। इसपर हैं कि 'ऐतिहासिक चर्च में भी साम्प्रदायिक विक्षोभ उत्पन्न प्रो० सा. पाठकोंकी दृष्टिमें अपनेको गिरते जानकर बड़े होते देख मैंने स्वयं अपने ऊपर यह नियंत्रण लगा लिया जुभित एवं कुपित होगये और मेरे उन कथनको कुत्सित है कि फिलहाल मैं जो कुछ जैनपत्रों के लिये लिखूगा वह वृत्तियाँ' एवं 'धोर अपराध' बतलाते हैं ? साथमें कलकत्ताकी विषय व प्रमाणकी दृष्टिसे दिगम्बर जैन इतिहास, साहित्य चर्चासम्बन्धी बातोंको 'विगतवार पेश' करने के लिये उन्होंने
और सिद्धान्तके भीतर ही रहेगा । बस, इसी आत्म-नियंत्रण मुझे बडी डाटके साथ ललकारा है। इस सम्बन्धमें मैं के कारण नियुत्रिकार भद्रबाहु सम्बन्धी चिन्तन दूर पद यदि कितनी भी ईमानदारीसे लिखगा तो भी प्रो.सा. उसे जाता है और प्रस्तुत विषय पूर्णत: उन सीमाके भीतर कदापि माननेको तैयार नहीं होंगे; क्योंकि उनकी धर्तमान प्राजाता है।'
प्रवृत्तिमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ और न तत्त्वत: जिज्ञासाका पाठक, देखेंगे कि मेरे प्रश्नसे प्रो० सास ने किस ढंगसे भाव जान पड़ता है। अतएव यदि वे उन बातोंको जाननेके किनाराकशी की है और भद्रबाह-सम्बन्धी लेखका उत्तर न लिये उत्सुक हैं तो मेरे पालावा उन उपस्थित विद्वानों देनेमें यह कारण बतलाया है कि उन्हें उससे साम्प्रदायिक
और प्रत्यक्ष दृष्टाओंसे उनको जान सकते हैं। फिर भी मैं विक्षोभ उत्पन्न होनेका भय है । वास्तवमें बात यह है कि एक बातका उल्लेख किये देता हूं। आपने कलकत्ताकी उन लेखके तथ्योंका उनके पास उसी प्रकार प्रमाणपूर्ण प्रथम दिनकी चर्चा के समय सबसे पहले यह प्रश्न किया था कोई उत्तर नहीं है जिस प्रकार पं० परमानन्दजी शास्त्रीद्वारा' कि वेद-वैषम्य सम्भव नहीं है, जब उसे पं० राजेन्द्रकमारजी लिखे गये 'शिवभूति, शिवार्य और शिवकुमार' शीर्षक लेख न्यायतीर्थने जीवकाण्ड गोम्मटसारकी गाथा 'कहिं विषमा' के तथ्योंका कोई उचित उत्तर नहीं है। और यदि वे इन का प्रमाण देकर उसे सिद्ध किया । तब थापने यक्रिसे सिद्ध दोनों लेखांके तथ्योंको स्वीकार करते हैं तो उनके विलप्त करनेके लिये कहा तो उन्होंने बन्ध तत्त्वका विश्लेषण करते अध्यायकी सारी इमारत ढह जाती है। इसी असमंजसमें हुये उसे युक्रिसे भी सिद्ध कर दिया। फिर श्रापका प्रश्न पड़कर अब प्रो. सा. को साम्प्रदायिक विक्षोभके उत्पन्न हुआ कि यह तो स्त्रीमुक्रिनिषेधके लिये दिगम्बर परम्पराने होनेका वहाना ढूंढना पड़ा है और इसीसे अब प्राम-नियं- माना है। इसका जबाब दिया गया कि स्त्रीमुक्रिको माननेअणकी ओर भी प्रवृत्त होना पड़ा है । जो कुछ हो, यह बाली श्वेताम्बर परम्परामें भी वेद-वैषम्य माना गया निश्चित है कि उनके ये वकीली दाव-पंच विचार-जगतमें कोई है । इसके बाद यद्यपि वेद-वैषम्य सिद्ध होजानेपर मुल्यवान नहीं समझे जा सकते हैं।
मामला खतम होगया था, किन्तु कुछ और प्रश्न किये गये
जो प्रस्तुत चर्चाके उपयुक्त न थे और सर्वथा किनारा कमीके अप्रयोजक प्रश्नोंका आरोप गलत नहीं है
थे । उपस्थित लोगोंने जान लिया कि अब आपसे उत्तर आगे चलकर मैंने अपने उसी लेखमें लिखा था कि नहीं बन रहा और इस लिये श्रापका चेहरा फीका पड़ने १ 'अनेकान्त' वर्ष ७, किरण १-२ ।
लगा एवं अन्यत्र जानेकी बात कही गई तो फिर चर्चा