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अनेकान्त
[किरण ४-५
दूसरे दिनको स्थगित की गई, इन सब बातोंको प्रत्यक्षदृष्टाओंने तो हमें समझमें नहीं आता कि मतसे अतिरिक्त और स्पष्ट देखा था। ऐसी स्थितिमें मेरे 'अप्रयोजक प्रश्न' या मान्यता क्या है और उसके परिवर्तनको छोड़कर परित्याग 'प्रयोजक प्रसंग' अथवा गौण बातें कहनेपर उन्हें 'कुत्सित और क्या चीज़ है ? साधारण विवेकी भी मत भार मान्यता वृत्तियाँ' और 'घोर अपराध' बतलाना सर्वथा गलत है। मैं तथा परिवर्तन और परित्यागकी अभिन्नताको समझ सकता नहीं चाहता था कि उन बातें प्रस्तुत की जाये, पर प्रो० सा है और निश्चय ही उसे कबूल करेगा । यथार्थत: मत और ने सोभमें पाकर मुझे उनको प्रकट करनेके लिये बाध्य मान्यता एवं परिवर्तन और परित्याग ये पर्यायवाची ही किया है। अत एव इस एक ही बातसे प्रकट है कि वे शब्द हैं। थोड़ी देरको यदि हम प्रो० सा० की यह मान्यता किस ढंगसे अनेकों अप्रयोजक प्रश्न खड़े करते हैं-'और की परिभाषा मान भी लें कि जिस बातको मननपूर्वक ग्रहण तथ्यको झमेलेमें डालकर उसे ईमानदारीके साथ स्वीकार और स्थापित किया जावे वह मान्यता है तो मैं कह देना नहीं करते। और इस लिये उनका क्षभित एवं कुपित होना __ चाहता है कि मत भी तो इसीको कहते हैं । दूसरे, अध्ययन सर्वथा व्यर्थ है।
के अधिकार नामक निबन्धमें जो कथन प्रस्तुत किया गया है मान्यताकी परिभाषा और उसका ग्रहण-परित्याग- वह मननपूर्वक किया हुश्रा है या नहीं ? यदि है, तो वहाँ
रत्नकरडश्रावकाचारको स्वामी समन्तभद्रकृत कहा जाना __ मैंने पहले लेखमें यह उल्लेख किया था कि 'सिद्धान्त
मान्यता क्यों न कहलायंगी? और यदि मननपूर्वक नहीं हैऔर उनके अध्ययनका अधिकार' नामक निबन्धमें स्न
गैरमननका है तो अधिकारका वह सब कथन निरर्गल ही करण दुश्रावकाचारको स्वामी समन्तभद्रकृत बतलाया गया है
कहा जायगा। ऐसी हालतमें प्रो० सा० स्वयं बतलायें कि और अब विलुप्त अध्यायमें उसे उनकी रचना न होनेका
ऐसे प्रयुक कथन और पूर्वापरविरुद्ध कथनका प्रमाणक्षेत्रमें कोई कथन किया गया है और इसलिये यह तो पूर्व-मान्यताका
मुल्य नहीं है या संगत और पूर्वापर-अविरुद्ध कथनका कोई छोड देना है। इसपर प्रो० सा० ने 'स्नकरण्डश्रावकाचार
मूल्य नहीं है ? स्पष्टत: विवेकीजन अयुक्र और पूर्वापरविरुद्ध और प्राप्तमीमांसाका कर्तृत्व' शीर्षक अपने लेखमें मेरे इस
कथनका ही प्रमाण क्षेत्रमें कोई मूल्य न बतलायेंगे। और आलोचनात्मक प्रतिपादनको पहले तो 'भ्रम' बतलाया और
यत्रिपूर्ण अविरोधी कथनको ही मुल्यवान कहेंगे। और इस फिर आगे उसी जगह बादमें यह कहते हुए उसे स्वीकार
लिये मेरे उन मान्यता छोडनेके कथनको निर्मूल और कर लिया कि 'गवेषणाके क्षेत्रमें नये आधारोंके प्रकाशमें
निराधार प्राक्षेप' बतलाना सर्वथा अनुचित एवं बेबुनियाद है। मतपरिवर्तन कोई दोष नहीं है। किन्तु अब आप लिखते हैं कि 'मान्यता तो तभी होती है जब किसी बातको मनन केवलीके १२ दोपों के अभावका स्वीकारपूर्वक ग्रहण और स्थापित किया जावे । किन्तु जहाँ पूर्वमें
स्नकरण्डश्रावकाचारमें प्राप्तके लक्षणमें पाये 'उच्छिन्नऐसी मान्यता प्रकट ही नहीं की गई वहाँ उसे छोड़ने आदि
दोष' विशेषणका स्वरूप क्षुधादि १८ दोष-रहित बतलाया का लांछन लगाना तो निर्मूल और निराधार आक्षेप हो
गया है। इसपरसे प्रो. साहबने उसे प्राप्तमीमांसाकार
। कहलायगा, जिसका प्रमाण क्षेत्र में कोई मूल्य नहीं।'
स्वामी समन्तभद्रकी रचना न होनेका मत प्रकट किया था मुझे सखेद कहना पड़ता है कि प्रो. सा. अपनी
और लिखा था कि 'रत्नकरण्डश्रावकाचारको उक्न समन्तभद्र पहले कही हुई बातको सर्वथा भूल जाते हैं। जब वे पहले
प्रथम (स्वामी समन्तभद्र) की ही रचना सिद्ध करनेके लिये या ढंकेकी चोट स्वीकार कर लेते हैं कि 'गवेषणाके क्षेत्र में
जो कुछ प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं उन सबके होते हए नये आधारों के प्रकाशमें मत-परिवर्तन कोई दोष नहीं है।'
भी मेरा अब यर मत दृढ होगया है कि वह उन्हीं ग्रन्थकारकी १६. फुलचन्द्रजी और पं. जीवन्धरजीकी चर्चाश्रोमें भी रचना कदापि नहीं हो सकती, जिन्होंने प्राप्तमीमाँसा लिखी
आपके द्वारा किये गये अनेको अप्रयोजक प्रश्न भरे पड़े थी, क्योंकि उसमें दोषका जो स्वरूप समझाया गया है है। जिन्हें पाठक उन चर्चाश्रोसे जान सकते हैं। वह प्राप्तमीमांसाकारके अभिप्रायानुसार हो ही नहीं सकता।'