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अनेकान्त
[किरण ४-५
स्वीकार है। इसार प्रो. सा.ने लिखा था कि न्यायाचार्य प्राप्तपरीक्षा दोनोंकी स्थिति एक है और दोनों ही में जी बातमीमांसा तथा युक्त्यनुशासनमेंसे तो कोई एक भी दार्शनिक दृष्टिकोण मुख्यत: विवेचनीय है और प्रागमिक ऐसा उल्लेख प्रस्तुत नहीं कर सके, जिसमें उन मान्यताका गौणतः । अतएव इस सम्बन्धमें और अधिक विवेचन अनाविधान पाया जाता हो। यथार्थत: यदि प्राप्तमीमांसाकारको वश्यक है। पूर्व लेखमें वह विस्तृत रूपसे किया जा चुका है। प्राप्तमें उन प्रवृत्तियोंका प्रभाव मानना अभीष्ट था तो उसके सुधादि वेदनाएँ मोहनीय सहकृत वेदनीय प्रतिपादनके लिये सबसे उपयुक्र स्थल वही ग्रन्थ था, जहाँ
जन्य कही गई हैउन्होंने प्राप्तके ही स्वरूपकी मीमांसा की है।' इसपर मैंने
पिछले लेखमें हमने बुधादि वेदनाओंको शास्त्रीय उनसे प्रश्न किया था कि क्या किसी प्रन्थकारके पूरे और
प्रमाणपूर्वक मोहनीय जन्य बतलाया है । यह हमने कहीं ठीक अमिप्रायका एकान्तत: उसक एक ही ग्रन्थपरस जाना नहीं लिखा कि 'क्षधादि वेदनाएँ सर्वथा मोहनीय जा सकता है ? यदि नहीं तो प्राप्तमीमांसापरसे ही प्राप्त- कमपन्न हैं। किन्तु प्रो० साहबको कुछ ऐसी गन्ध श्रागई मीमांसाकार स्वामी समन्तभद्रके पूरे अभिप्रायको जाननक है कि मैं उन्हें सर्वथा मोहनीय कर्मोन्पन्न मानता है। इसके लिये क्यों प्राग्रह किया जाता है? और उनके ही दूसरे लिये उन्होंने मेरे लेखके दो स्थलोंकी कुछ पंक्रिया उद्धृत ग्रन्थपरमे वैसे उल्लेख उपस्थित किये जानेपर क्यों अश्रद्धा
श्रद्धा की है, जो अधूरे रूपमें उपस्थित की गई हैं । वे पंक्रियों की जाती है ? ममममें नहीं आता कि प्रो० सा के
अपने पूरे रूप में निम्न प्रकार हैं:इस प्रकारके कथनमें क्या रहस्य है?' इसके साथ ही पाँच
'वास्तव में प्राप्तमीमाँसामें प्राप्तके राग, द्वेषादि दोष हेतु-प्रमाणसे प्राप्तमीमाँसामें भी कारिका दोमें रत्नकरण्डोक्र
और प्रावरणोंका अभाव बतला देनेपे ही तजन्य धादि दोषका स्वरूप प्रमाणित किया था । अब उन्होंने लिखा है
प्रवृत्तियों-लोकमाधारण दोषोंका प्रभाव मुतरौ सिद्ध हो कि 'जो प्रन्थकार अपने एक ग्रन्थमें प्राप्तके सुस्पष्ट लक्षण
जाता है। उनके प्रभावको प्राप्तमें अलग बतलाना अमुख्य स्थापित करे और प्राप्तमीमांसापर ही एक पूरा स्वतंत्र ग्रन्थ
एवं अनावश्यक है।' लिखे उससे स्वभावत: यह अपेक्षा की जाती है कि वह उस
तात्पर्य यह कि समन्तभद्को प्राप्तमीमांसामें यथार्थग्रन्थमें उन्हीं लक्षणोंकी व्यवस्थित मीमांसा करेगा।' मालूम वक्रत्व और उसके जनक वीतरागत्व तथा सर्वज्ञत्व रूपसे ही होता कि उन्होंने मेरे उन पाँच हेतु-प्रमाणोंर सर्वथा ही प्राप्तके स्वरूपका स्पष्टत: निर्वचन करना इष्ट है । धादि ध्यान नहीं दिया, जिनके द्वारा यह बतलाया गया है कि तुच्छ प्रवृत्तियोंके प्रभावकी सिद्धि तो श्रासमें मोहका प्रभाव प्राप्तमीमांसा का० २ में दोषका लक्षण वही किया है जो रन- होजानेसे अस्पष्टत: एवं भानुषंगिक रूपमें स्वत: होजाती है। करण्टुमें है। थोड़ी देरको यह मान भी लें कि प्राप्तमीमामा अत: उसके साधनके लिये सीधा प्रयत्न या उपक्रम करना में वह लक्षण कण्ठत: नहीं है तो यह जोर देना अनुचित है स्वासतौरसे आवश्यक नहीं है। बुधादि प्रवृत्तियों वस्तुतः मोह कि वह लक्षण भी उसमें कण्ठतः ही होना चाहिए। इसके नीय सहकृत वेदनीयजन्य हैं। अतएव मोहनीयके बिना केवलीमें बारेमें प्राप्तपरीक्षा और उसकी प्राप्तपरीक्षालंकृति टीकाका वेदनीय उन प्रवृत्तियोंको पैदा करनेमें सर्वथा असमर्थ है।' हवाला भी दिया गया था जहाँ मुख्यत: उन धादि दोषों इन मेरे पूरे उद्धरणोंपरसे विज्ञ पाठक जान सकेंगे कि के अभावरूपसे प्राप्तका स्वरूप वर्णित नहीं किया गया है। मेरी जुधादिवेदनाओंको सर्वथा मोहनीय कर्मोत्पल माननेकी फिर भी इससे यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि मान्यता है या मोहनीय सहकृत वेदनीय जन्य माननेकी है? उसके कर्ताको उक्र लक्षण इष्ट न होगा या उसे बाधित स्पष्टत: वे मेरी मान्यता बधादिवेदनाओंको मोहनीय सहकृत समझा होगा। किन्तु वह लक्षण फलित होजानेसे वर्णनीय वेदनीय जम्य होनेकी ही उक उद्धरणों में देखेंगे, जब मैं नहीं रहा। यही स्थिति प्राप्तमीमांसाके लिये है और इस उसी जगह स्पष्टतया लिख रहा हूं कि सुधादि प्रवृत्तियों लिये उन तीन विकल्पोंका कोई महत्व नहीं रहता जो इस वस्तुत: मोहनीय सहकृत वेदनीय जम्य हैं।' तब समझमें नहीं प्रसंगमें प्रस्तुत किये हैं क्योंकि प्राप्तमीमामा और पाता कि प्रो० सा० ने मेरी मान्यताका विपर्यास क्यों