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किरण ४-५]
पाजादीके द्वार खडे हैं
नालकशा-निस्सन्देह, ऊपर वाले उदाहरणों में पहलूसे भी विचार करें, आप हिंसा और पापकी जिम्मेवारी बे, मृत्युका कारण होते हुये भी मृत्युके लिये उत्तरदायी सन यका कारण ते कोर
से नहीं बच सकते। नहीं हैं। क्यों नहीं इस धास्ते कि उनके प्राधरणका प्रेरक
इस लम्बे बाद-विवादके पश्चात् मेरी यही अन्तिम हेतु प्रेम था, परोपकार था। उनकी दिली भावना थी कि वे प्रार्थना है कि श्राप भगवान बुद्ध द्वारा घोषित अहिंसा तत्व उनके दुख-दर्द को दूर करके उनको मृत्युसे बचा लें । यह
पर निष्पक्ष दृष्टिसे विचार करें; और दुराग्रह छोदकर देखें बात दूसरी है कि वे अपने मनोरथमें सफल नहीं हुए, कार्य
कि वह कहाँ तक आपके प्रचलित मांसाहारकी पुष्टि करता है। की सफलता और असफलता केवल मनोरथपर निर्भर नहीं,
केवल इसलिये कि आप मुद्दतसे माँसाहारकी लतमें पदे इसके लिये बहुतसे, सहायक कारणों के सहयोग और विरोधी हुए हैं और उसे छोड़ना कठिन है। उसकी युनियों द्वारा कारणोंके प्रभावकी जरूरत है। परन्तु माँस-प्राप्तिके लिये समर्थन करनेकी चेष्टा करना पाप जैसे अहिंसा धर्म मानने पशुवध वाली क्रियामें अथवा मोंसभक्षण वाली आदतमें
वालों के लिये शोभा नहीं देता । मैं समझता है, आपका प्रेरक हेतु प्रेम वा परोपकार नहीं है। यह काम पशुओंके पूर्ण विश्वास है कि अहिंसा तत्वका प्रचार करनेमे आप न दुखदर्द हरने और उन्हें मृत्युसे बचाने के लिये नहीं किये केवल दूसरोंकी ही श्राचार-शुद्धि करते हैं । भगवान बुद्धने जाते, बल्कि यह काम प्रमाद, मोह और स्वार्थवश धन- डाकुओंके सरदार अङ्गलिमालको अहिंसा धर्मका उपदेश लालसा अथवा विषय-लालसासे प्रेरित होकर किये जाते हैं। देकर न केवल उसका सदाके वास्ते पापसे उद्वार कर दिया, इस वास्ते ऊपरके उदाहरणों वाले काम पुण्य हैं और पशु- बल्कि उसके द्वारा भविष्य में वध होनेवाले बहुतसे मनुष्यों वध वा मांसभक्षण वाले काम पाप हैं. प्रेरक भावनाओंमें का भी मृत्युसे उद्धार कर दिया । भगवानका यह आचरण भेद होनेसे क्रियाओंके फल और उनके नैतिक मूल्यों में भेद कितना उदार और कितना मिपूर्ण था ? आप भी अपने होना स्वाभाविक ही है। हिंसा-अहिंसा तत्त्वका निर्णय केवल जीवनमें यदि इस प्रकार उदार और वात्सल्य पूर्ण प्राचारको कारण कार्यसम्बन्धको देखनेसे नहीं होता. इसके लिये स्थान दें तो आपके श्रादर्श और व्यवहारमें बड़ी समता कियात्रोंकी प्रेरक भावनाओंको पनपना भी जरूरी है। पैदा होगी, जीवनमें शुद्धि प्रायेगी और संघर्मे वह शकि
उदित होगी कि श्राप संसारके हिंसात्मक प्रवाहको बदलकर इस तरह श्राप इस मांसभक्षण वाले विषय पर किसी उसे अहिंसात्मक बना देंगे।
हम आज़ादीके द्वार खड़े हैं
[रचयिता-श्री पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित']
जनहितके भरमान लिये हम आजादीके द्वार स्थडे हैं !
भारतको आजाद कराने , मानवताके साज सजाने , दुष्ट दु-शासनके हाथोंसे
दुपद-मुताकी लाज बचाने, बोर बढ़ाने; 'मोहन' म्बुद बाहन तजकर भगवान उड़े हैं!
साम्य-सुखोंकी धार बहाने, नवजीवनकी ज्योति जगाने, दिन पलटेंगे, जग बदलेगा,
दम्भ-द्वेषमें आग लगाने विश्व-निरङ्का झण्डा लेकर वीर जवाहरलाल बढ़े हैं।