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वर्ष ८]
अहिंसा और माँसाहार
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नीलकेशी-आपकी यह यक्रि भी ठीक नहीं है। व्यवस्थामें पाये बिना नहीं रह सकता। पेशगी दाम देने या न देनेने हिंसा-पापके उत्तरदायित्वमें
-बहुत अरछा, आपकी उपरोक्र. धारणा कोई अन्तर नहीं पड़ता। क्योंकि आप अच्छी तरह जानते ठीक सही; पर यह तो बतलाईये, कि यदि माँस खाना हैं कि मौस-विक्रेता पशु मारकर या मरवाकर ही मौसकी प्राप्ति पाप है, तो श्राप दूध क्यों पीते हैं ! दूध भी तो आखिरकार करता है, और वह पशु मारने या मरवाने का काम उस धनकी माँसमें से ही उत्पन्न होता है। फिर दूध पीना मांस खानेसे लालसा-वश ही करता है, जो वह माँसके बदलेमें श्रापसे भिन्न कैसे हो सकता है। प्राप्त करनेकी इच्छा या अाशा रखता है। इस तरह समस्या
है! यह मापने क्या नासमझीक का विश्लेषण करनेपर यह स्पष्ट होजाता है कि पशु-बध
बात कही ! माँसाहारके सम्बन्धमें हमारी आपत्ति अहिंसा करने अथवा मांस बेचनेका मूल प्रेरक कारण माँस खानेवालों
सिद्धान्तपर अवलम्बित है। चूंकि माँसाहार अन्य प्राणि की माँस-लालसा ही है । कि मसभनक लालसा-वश
के प्राणोंका घात किये बिना नहीं हो सकता । इसलि दाम देकर माँस खरीदना चाहते हैं, इसलिये माँस-विक्रेता
माँसाहार पाप है। परन्तु, दूधके लिये किसीके भी प्राणोंका पशु मारकर बाजारमें लाते हैं। यदि मांसाहार बन्द होजाय
घात करना आवश्यक नहीं। दूधकी प्राप्ति बिल्कुल निरतो माँसविक्रय और पशुबध भी खतम होजाय । इस तरह हिंसक है। स्वयं पशु अपने नियत समयपर दूध देनेके पशुहिंसाका उत्तरदायित्व उन लोगोंपर है जो मॉस-भक्षण
लिये सदा ऐसे ही तय्यार रहते हैं जैसे कि वृक्ष अपने करते हैं।
फलोंको । चूंकि दुग्ध देना पशुओंके लिये हानिकारक द्ध नहीं, नहीं, मानव जीवनमें पुण्य और पाप नहीं, हितकर है, दुःखमय नहीं, सुखमय है, पशुओंमें दुग्धरूप नैतिक मूल्योंका सम्बन्ध उसके सुकर्म अथवा दुष्कर्मसे मोचनकी क्रिया अपनी पुष्टि, सन्तुष्टि और अपनी सन्तान है. भोग-उपभोगसे नहीं। चकि मांसभक्षण भोग-उपभोग की परिपालनाके लिये बिल्कुल स्वाभाविक और श्रावश्यक की कोटिमें आता है. किसी सकर्म अथवा दुष्कर्मको कोटिमें है, इसलिये दूध पीना पाप नहीं है। नहीं पाता, इसलिये मांसभक्षणका पुण्य अथवा पाप-रूप श्रापकी यह धारणा भी कि दूध माँसकी पर्याय है, कोई भी नैतिक मूल्य नहीं है । मांसभक्षणके सम्बन्धमें बिल्कुल भ्रम है। दूध माँसकी पर्याय नहीं, बल्कि जैसा कि पापाचारकी कल्पना करना भ्रममात्र है।
उसके रस अथवा गन्धसे सिद्ध होता है, वह तो उस घास नीलकेशी-ओह ! आपकी पुण्य-पाप-सम्बन्धी
चारेकी निकटतम पर्याय है जो पशुको खानेके लिये मिलता यह धारणा तो बहुत ही भयंकर है। कर्म और भोगमें इस
है। क्या आपको यह मालूम नहीं कि दूधकी विशेषता प्रकारका भेद करके, पुण्य-पापकी व्यवस्था बनाना और
पशुओंके चारेकी विशेषतापर निर्भर है। क्या खल और भोकाको नैतिक उत्तरदायित्वसे सर्वथा मुक्त करना सदाचार
बिनोला खानेवाली गऊके दूधमें अधिक स्निग्धता नहीं और संयमको लोप करना है। इस तरह तो स्त्रियोंके सतीत्व
होती ? क्या मौका खाया हुभा आहार छातीका दृध पीनेवाले को बलात हरण करनेवाले आततायी भी, अफीम, शराब
बच्चे के स्वास्थ्यपर अपना असर नहीं डालता? क्या माँको श्रादि मादक पदार्थोंका भोग करने वाले दुराचारी भी सभी
खिलाई हुई औषधि बहुत बार दूधमुंहे बच्चोंके रोगोंका जिम्मेवारीसे अाजाद हो जायेंगे। सच तो यह है कि मनुष्य निवारण नहीं करती? का मन, वचन अथवा कायसे होनेवाला व्यापार कोई भी इसके अतिरिक्र, लोक व्यवहारमें भी आज तक किसीने ऐसा नहीं जिसका अच्छा या बुरा प्रभाव उसके अपने दूधको अशुद्ध ठहरा कर उसकी निन्दा नहीं की-जब कि निजी जीवनपर अथवा बाह्य लोकके हित-अहितपर न पड़ता संसारके सभी मान्य विज्ञ पुरुषोंने मांसको अशुद्ध और हो, इसलिये नैतिक दृष्टिसे मनुष्यका प्रत्येक कार्य चाहे वह अप्राकृतिक श्राहार ठहरा कर उसकी निन्दा की है। भंग-उपभोगरूप हो, चाहे अन्य प्रकारका हो, पुण्य- पापकी इन सब तर्कोकी मौजूदगीमें भी यदि आप दूधको