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अनेकान्त
वर्ष ८
चुपचाप उस आचरणकी ऐसी अनुमोदना करता है जायगी। कल्पना कीजिये कि भगवान बुद्ध एक नगरके जैसे कि मांसभक्षक पशुवधकी करता है तो पिता समीप उद्यानमें आकर ठहरे-नगरवासियोंको यह जानकर निश्चय रूपसे नैतिक दृष्टिमें अपने पुत्रके दुराचारका बड़ा हर्ष हुश्रा कि भगवान श्राहार लेनेके लिये नगरमें उत्तरदायी है।
पधारेंगे । यद्यपि यह बात निश्चित है कि वह केवल एक गृहस्थ -आप मेरे आशयको नहीं समझे, मेरा
के पाससे ही आहार ग्रहण करेंगे: परन्तु सबी नगरवासी अभिप्राय यह है कि मांसभक्षक पशुको मारकर माँसकी
उनके पधारनेकी आशा करके अपने अपने घर पुण्यार्थ प्राप्ति नहीं करता वह तो उसे या तो कहींसे खरीदता है या
भोजन तय्यार करते हैं। ऐसी दशामें श्राप यह बात जरूर मांगकर लेता है या चारी द्वारा प्राप्त करता है । इस तरह
स्वीकार करेंगे कि यद्यपि इन गृहस्थोंमेंसे केवल एकको ही उसका पशुवधमे कोई भी सम्बन्ध नहीं है। ऐसी हालतमें
श्राहार देनेका सौभाग्य प्राप्त है । परन्तु, सभी गृहस्थ वह वध-क्रियाके लिये कैप उत्तरदायी हो सकता है ?
जिन्होंने भगवानका संकल्प करके भोजन तय्यार किया है
निश्चयपूर्वक एक समान पुण्यके अधिकारी हैं । इस उदाहरण नीलकेशी-यदि कोई मनुष्य बुद्ध भगवानके
में यद्यपि अातिथ्य-कार्य केवल एक गृहस्थके साथ ही चरणोंकी पूजा करनेके पश्चात बौद्ध-मन्दिरसे फूल ले जाता
सम्बन्धित है परन्तु आप सभी गृहस्थोंको पुण्य अधिकारी हा रास्ते में किसी दूसरे व्यक्रि द्वारा अधमुश्रा कर दिया
इस वास्ते ठहराते हैं कि सभी भगवानके दर्शनोंके इच्छुक जावे और वह दूसरा व्यक्रि भगवानकी पूजाके भावग्मे उन
थे, सभी उनके साकारद्वारा अपनी प्रात्मतृप्तिके उत्सुक थे, फलोको छीनकर ले जावे तो आपकी मान्यतानुसार दोनों
इसी तरह माँसाहारके विवादस्थ विषयमें भी श्राप पापके उत्तरमनुष्य समान पुण्यके अधिकारी हैं। यदि प्रशस्त अथवा
दायित्वको समझनेकी कोशिश करें। ऊपर वाले उदाहरण में प्रशस्त किसी भी उपाय-द्वारा फूलोंका प्राप्त करना पूजाके
जिस प्रकार भगवान बुद्ध बिना किसी विशेष व्यक्रिको लक्ष्य समान ही पुण्यका देनेवाला है तो अच्छे या बुरे किसी भी
किये नगरमें पधारते हैं, वैसे ही पशुघातक विना किसी उपाय-द्वारा मांसको प्राप्त करना पशुबधके समान ही पापका
विशेष ब्यक्रिको लक्ष्य किये माँस बेचनेके लिये बाज़ारमें देनेवाला ठहरता है । श्राप पहले उदाहरणमें पुण्यकी
श्राता है। ऊपर वाली मिसालमें जैसे सभी गृहस्थ बिना समानताको मानकर दूसरे उदाहरणमें पापकी समानतासे
इस अपेक्षाके कि उनमें से किसने भगवानकी सेवा की. इन्कार नहीं कर सकते, आप जब पुण्यके कार्योंमें कारण कार्य
भगवत् मेवाकी अभिलाषाके कारण पुण्यके अधिकारी सम्बन्धकी सार्थकताको मानते हैं तो आपको पाप-कार्य में भी
हैं, वैसे ही विचारणीय प्रकरणमें, बिना इस अपेक्षाके कि कारण-कार्यकी सार्थकताको मानना ही होगा।
किसने माँसका उपभोग किया. सभी मौसभक्षक जो मांस द्ध-आप अब भी मेरे श्राशयको ठीक नहीं लालसाके कारण मोस खरीदनेकी प्रतीक्षामें लगे हैं, हिंसा समझे, मैं फिर इसको स्पष्ट किये देता हूँ । पशुको मारने पापके उत्तरदायी हैं क्योंकि वे सभी जानते हैं कि बिना वाला मनुष्य न तो हमारे लिये पशुको मारता है न हमारे पशुवधके माँसकी प्राप्ति नहीं होती। इस तरह सभी मांसकहनेपर ही ऐसा काम करता है, वह किसी भी विशेष भक्षक हृदयसे पशुवधका अनुमोदन करते हैं। व्यक्रिको दृष्टिमें न रखकर मांसको बेचने के लिये लाता है जो
-आपके उदाहरणको मैंने भली भाँति कोई उसकी कीमत देता है वह ही उसको ले जाता है।
। समझ लिया है; परन्तु आपकी उठाई हुई आपत्ति तभी इस तरह मारनेवालेने किसी विशेष ग्राहकको लक्ष्यमें रख ।
ठीक हो सकती है, जब कि मांसभक्षक माँस खरीदनेके लिये कर बध नहीं किया है, इसलिये स्वरीदने वाले और मारने
पशुघातकको पेशगी मूल्य दे दे । लेकिन हम तो किसी वालेमें कोई भी सम्बन्ध नहीं ठहरता।
पशुघातक या पशुाँस-विक्रेताको कभी कोई दाम पेशगी नीलकेशी-मापकी उन तर्कशैली बहुत ही नहीं देते; इसलिये हम माँसविक्रेताके आचरणके किस दोषपूर्ण है, यह बात आपको एक ही उदाहरणसे स्पष्ट हो प्रकार अनुमोदक ठहराये जा सकते हैं।