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अहिंसा और मांसाहार (अंग्रेजी अनुवादक-प्रिपल ए० चक्रवर्ती एम० ए०, मद्रास) [ हिन्दी अनुवादक-बा. जयभगवान एडवोकेट, पानीपत ]
['नीलकेशी' तामिल साहित्यका एक बहुत ही सुन्दर, शिक्षाप्रद और अपने ढंगका अनोखा ग्रन्थ है। ई. सन् १९३६ में माननीय प्रिंसपल ए. चक्रवर्तीने इसके तामिल मूलपाठका अंग्रेजी भावार्थ के साथ सम्पादन और प्रकाशन करके साहित्य-प्रेमियोंको सदाके लिये अपना ऋणी बना लिया है। यद्यपि प्रन्थ परसे अथवा अन्यसाधनोंसे अभी तक इसके कर्ता और उसके समयका ठीक निर्णय नहीं हो पाया है, फिर भी इसके प्रतिपादित विषय और प्रसंगवश लिखी हई, तत्सम्बन्धी अनेक बातों परसे यह निश्चित है कि यह किसी महामनस्वी जैन विद्वानकी कृति है, जिसने ई. सन की पहिली शताब्दीसे लेकर पाँचवीं शताब्दी तकके मध्यवर्ती किसी समयमें जन्म लेकर अपनी गुण गरिमापे तामिल देशको सुशोभित किया है। इसका मुख्य विषय अहिंसा' है, अहिंसा-धर्मका अनेक दृष्टियोंसे ऊहापोह करनेके लिये इसके सुयोग्य लेखकने भारतके तत्कालीन सभी दार्शनिक सम्प्रदायोंकी गवेषणपूर्ण चर्चा की है। इस ग्रन्थके चौथे भागके चौथे अध्यायमें अहिंसाधर्मके मानने वाले बौद्ध लोगोंके माँसाहारवाले चलनकी कडी समालोचना की गई है। उसी समालोचनाके भावार्थका निम्न निबन्धमें दिग्दर्शन कराया गया है। यदि पाठकोंको यह निबन्ध रुचिकर सिद्ध हा, तो उपरोक ग्रन्थके अन्य प्रकरणांका भी इसी भाँति हिन्दी भाषामें दिग्दर्शन करानेका प्रयत्न किया जायेगा।
--हिन्दी अनुवादक]
-बुद्धधर्मका कल्प्यमाँसका सिद्धान्त, करपात है;
कर पाते हैं: जैसे बोधिवृक्षकी प्रदक्षिणा देना, उसकी पूजा करना जिसकी मान्यताके आधार पर बौद्ध समाजमें माँसाहारकी पुण्य कार्य है; क्योंकि इसका परम्परागत सम्बन्ध भगवान प्रवृत्ति फेली हई है, बहत ही प्रयुक्त और हिंसात्मक है। बुद्धस ।। यह बात ठीक है कि पशु-पक्षियोको मारना
नीलकेशी-ठीक, यदि तुम्हारी तर्कणा अनुसार अयुक्र और हिंसात्मक है; परन्तु, इसका माँसाहारसे क्या
कारण कार्यमें परम्परागत सम्बन्ध होनेसे पुण्यका उपार्जन सम्बन्ध
हो सकता है, तो कारण कार्य में परम्परागत सम्बन्ध होनेसे नीलकेशी-यदि आप पशु-पक्षियोंको मारना पाप
पापका उपार्जन क्यों नहीं हो सकता। जैसे बोधिवृक्षकी समझते हैं, तो आपको माँसाहारको भी पाप मानना ही
पूजा करनेसे तुम्हारा ध्यान भगवान बुद्ध की ओर श्राकर्षित होगा, क्यों के दोनोंमें कारण कार्य सम्बन्ध है। बिना पशु
होता है, वैसे ही माँसाहारका ग्रहण तुम्हारे ध्यानको माँस पक्षियोंको मारे मांसाहारकी प्राप्ति नहीं होती. प्राणियोंको।
प्राप्तिके उपायोंकी ओर आकर्षित करता है। मारना पाप है, इस लिये मारनेसे प्राप्त हुआ मौसाहार भी
-अच्छा, यदि पशुवध होनेके कारण आपको
हमारे माँसाहार पर आपत्ति है, तो आप अपनी मोरपिंकी द्व-पशु-वध और माँसाहारमें कोई भी कारण रखनेकी प्रथाको कैसे प्रशस्त सिद्ध कर सकते हैं ? क्योंकि कार्य सम्बन्ध सिद्ध नहीं है। हो. मनुष्य पुण्यार्थ जो कार्य मोरपिंछीमें लगे हुये मोरके पंख भी तो मोरोंके वध-द्वारा सम्पादन करता है, उनका सम्बन्ध पुण्यात्मक कारणों से प्राप्त हो सकते हैं। जरूर होता है और उस सम्बन्धके कारण ही वे कार्य पुण्य नीलकेशी-आपने हमारी मोरपिंछीकके सम्बन्ध