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किरा ४-५ ]
कितना समर्थ हुआ है, इसे विद्वज्जन ही जान सकेंगे । अतः विद्वानोंसे मेरा सानुरोध निवेदन है कि वे अनुवादमें जहाँ कहीं भी कोई त्रुटि देखें उसमे उसी समय मुझे सूचित करने की कृपा करें, जिससे ग्रन्थ- प्रकाशनादिके अवसरपर उसे दूर किया जा सके। इसके लिये मैं उनका हृदयसे आभारी हूँगा। क्योंकि जिस समन्तभद्रभारतीको श्रीवीरनन्दी श्राचार्यमे (चन्द्रप्रभचरितमें) उस र्निमल गोल मोतियोंकी माला से भी परमदुर्लभ बतलाया है जिसे नरोत्तम अपने कण्ठका विभूषण बनाते हैं और श्रीनरेन्द्रसेनाचार्य (सिद्धान्तसारसंग्रह में ) जिसे मनुष्यत्वको प्राप्तिके समान दुर्लभ बतलाते हैं उसके विषय प्रायः ऐसे ही गूढ़ प्रवचन ग्रन्थ हैं, और इसलिये मैं चाहता हूँ कि ये ग्रन्थ जनसाधारण के ठीक परिचयमें भावें लोग उनके महत्व तथा मर्मको समझने में समर्थ हो सकें। उसीके श्रर्थ, लोकहितकी भाषनासे, मेरा यह सब प्रयत्न है और उसके लिये सभी विद्वानोंका सहयोग वाँछनीय है । श्राशा है स्वामी समन्तभद्रके उपकारोंसे उपकृत और उनके ऋणसे कुछ उऋण होनेके इच्छुक सभी समर्थ विद्वान् मेरे इस सप्रयत्न में बिना किसी विशेष प्रेरणा के सतर्कता के साथ सहयोग देकर अपने कर्तव्यका पालन करेंगे । - सम्पादक ]
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अनेकान्त
हत्या भुवि वर्द्धमानं स्वां वर्द्धमानं स्तुति- गोचरत्वम् । निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं विशीर्ण-दोषाऽऽशय-पाश-बन्धम् ॥ १ ॥
'हे वीरजिन ! - इस युग के अन्तिम तीर्थप्रवर्तक परमदेव ! आप दोषों और दोषाऽऽशयोंके पाश-बन्धनले विमुक्र हुए हैं -- श्रापने अज्ञान प्रदर्शन-राग-द्वेष-काम-क्रोधादिविकारों अर्थात् विभावपरिणामरूप भावकर्मों और इन दोषात्मक भावकम संस्कारक कारणों अर्थात् ज्ञानावरण-दर्शनावरण- मोहनीय-अन्तरायरूप द्रव्यकर्मों के जालको छिन्न-भिन्न कर स्वतन्त्रता प्राप्त की है; आप निश्चितरूपसे ऋद्धमान (प्रवृद्ध माण) हैं— श्रापका तत्वज्ञानरूप प्रमाण (केवलज्ञान) - स्याद्वाद - नयसे संकृत होने के कारण प्रवृद्ध है अर्थात सर्वोत्कृष्ट एवं श्रबाध्य है; और (इस प्रबृद्धप्रमाणके कारण ) आप महती कीर्तिसे भूमण्डलपर वर्द्धमान हैं— जीवादितत्त्वार्थोंका कीर्तन (सम्यग्दर्शन) करनेवाली युक्रि-शास्त्राऽविरोधिनी दिव्यवाणी साक्षात् समवसरएकी भूमिपर तथा परम्परासे परमागमकी विषयभूत सारी पृथ्वीपर छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, निकटवर्ती दूरवर्ती, तत्कालीन और उत्तरकालीन सभी पर अपर परीक्षकजनों के मनों को संशयादिके निरसनद्वारा पुष्ट एवं व्याप्त करते हुए आप वृद्धि-व्याप्तिको प्राप्त हुए हैं--सदा सर्वत्र और सबके लिये 'शुक्रि-शास्त्राऽविरोधिवाक्' के रूपमें अवस्थित हैं, यह बात परीक्षा द्वारा सिद्ध हो चुकी हैं। (श्रुतः) श्रत्र - परीक्षाऽवसानके समय श्रर्थात् (आप्तमीमांसा द्वारा) युक्ति-शास्त्राऽविरोधिवाक्स्वहेतु से परीक्षा करके यह निर्णय कर चुकनेपर कि श्राप विर्शर्ण-दोषाशयपाशबन्धत्वादि तीन असाधारण गुणों (कर्मभेतृत्व, सर्वज्ञत्व, परमहितोपदेशकत्व) से विशिष्ट हैं - आपको स्तुतिगोचर मानकर - स्तुतिका विषयभूत श्राप्तपुरुष स्वीकार करके, हम परीक्षाप्रधानी मुमुक्षुजन—- आपको अपनी स्तुतिका विषय बनाना चाहते हैं— श्रापकी स्तुति करनेमें प्रवृत्त होना चाहते हैं।'
याथात्म्यमुल्लंघ्य गुणोदयाssख्या लोके स्तुतिभूरि-गुणोदधेस्ते । अणिष्ठमप्यंशमशक्नुवन्तो वक्तुं जिन ! त्वां किमिव स्तुयाम ॥ २ ॥
'यथार्थताका — यथावस्थित स्वभावका - उल्लंघन करके गुणोंके― चौरासी लाख गुणोंमेंसे किसी के भी - उदय - उत्कर्ष की जो श्राख्या- कथनी है-बढ़ा चढ़ाकर कहनेकी पद्धति है—उसे लोकमें 'स्तुति' कहते हैं। परन्तु हे वीरजिन ! आप भूरिगुणोदधि हैं— अनन्तगुणोंके समुद्र हैं— और उस गुणसमुद्रके सूक्ष्मसे सूक्ष्म अंशका भी हम (पूरे तौरसे) कथन करनेके लिये समर्थ नहीं हैं— बढ़ा चढ़ा कर कहनेकी तो बात ही दूर है । श्रतः वह स्तुति तो हमसे न नहीं सकती; तब हम छद्मस्थजन (कोई भी उपमान न देखते हुए) किस तरहसे आपकी स्तुति करके स्तोता बनें, यह कुछ समझ में नहीं आता !!"