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किरण ४-५
अहिंसा और मांसाहार
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में जो हिंसाको आपत्ति उठाई है, वह ठीक नहीं है, क्योंकि जिम्मेवारीका सवाल केवल मनुष्य-व्यवहारमें ही सार्थक जिन मोर पंखोंसे हमारी पिंछी बनाई जातो है वे मोरोंको ठहरता है, और वह भी तब, जब वि कार्य इच्छापूर्वक किया मारकर प्राप्त नहीं किये जाते, बल्कि जिन पंखोंको मोर स्वयं जाता है । जो कोई किसी मनोरथ सिद्धिके लिये इच्छासमय समयपर माड़ता रहता है, उन्हें जंगलके लोग जमा पूर्वक कोई कार्य करता है, वही उसके भले बुरेका जिम्मेवार करके बेच जाते हैं, उन्हींसे पिंछी बनाई जाती है। इस तरह होता है। इस लिये आपका यह कहना कि मरने वाला हमारी मोरपिंछीका परम्परागत कारण हिंसा नहीं है। पशु भी पापका जिम्मेवार है. बिल्कुल निरर्थक है, क्योंकि ____ इसके अतिरिक्र हमारी चर्या अनुसार साधुके लिये कोई भी पशु अपना वध कराना नहीं चाहता। इतना सावधान रहना जरूरी है कि वह कोई वस्तु ग्रहण बौद्ध-अच्छा, मैं अपनी मान्यताको एक और करनेसे पहिले यह निश्चय करले कि उसकी उत्पत्ति किसी उदाहरण द्वारा सिद्ध करता है। देखिये, कोई मनुष्य हिंसा द्वारा तो नहीं हुई है, मोरपिंछी लेते समय द्वषवश एक देवालयको तोद-फोद कर गिरा देता है; दुसरा साधुको यदि पंखोंके सिरोंपर लगे हए रक चिन्होंसे या मनुष्य, उस गिरे हये मलबे लोक कल्याणार्थ, देवालय किन्ही अन्य उपायों द्वारा हिंसाकी श्राशंका हो जाय तो उस को बनाकर तैयार कर देता है तो क्या दूसरा मनुष्य भी के लिये वह मोरपिंछी त्याज्य हो जाती है।
पहिलेके किये हुए दुष्कर्मका जिम्मेवार है? इसके अलावा हमारे साधु में जो मोरपिंछी रखनेका
-आपका उदाहरण हमारी समस्यासे चलन है, वह सूक्ष्म जन्तुओंकी रक्षाके लिये है, अपनी किसी
कुछ भी समानता नहीं रखता, यह हमारे प्रश्नको हल माँस लालसाको तृप्त करनेके लिये नहीं। इस तरह आपके
करने में तनिक भी सहायक नहीं है। आपके दिये हये उदामाँसाहारके चलन और हमारी मोरपिंछीके चलनमें जमीन हरणमें वह मनुष्य जो गिरे हए मलयेपे देवालयका पुनः पासमानवा अन्तर है। माँसाहार पशु-वध द्वारा हासिल निर्माण करता है. पहिले दुग्कर्म करने वाले मनुष्यके चलन किया जाता है और अपनी जिह्वाकी लालसाके लिये प्रयुक्र का किसी प्रकार भी अनुमोदन नहीं करता, बल्कि देवालय किया जाता है; परन्तु मोरपंख बिना किसी पशुपक्षिवधके
को बनाकर उसे गिराने बालेके आचरणका प्रतिषेध करता प्राप्त किये जाते हैं, और वे सूक्ष्म जन्तुओंकी रक्षा करनेके
है, परन्तु तुम्हारे मांसभक्षण वाले प्राचरणमें कोई बात भी नेक कामके वास्ते प्रयुक्त किये जाते हैं।
ऐसी नहीं है, जिससे वध करने वाले मनुष्य के श्राचरणका बाद्ध-निस्संदेह हिंसायक होने के कारण पशु- प्रतिषेध होता हो बल्कि मौसभक्षक, चुपचाप रीतिसे मारने पक्षियों को मारना पाप है लेकिन इस पाप कार्यके सम्पादन
वालेका अनुमोदन ही करता है। दूसरे, देवालयको पुन: के लिये दो कारण आवश्यक होते हैं. एक मारने वाला निर्माण करने वाला पहले मनुष्य द्वारा किये हुए दुष्कर्मका मनुष्य दसरा मरनेवाला पशु अथवा पति । बिना मरनेवालेके सुधार करके देवालयका उद्धार करता है, लेकिन आपके कोई भी वध-कार्य सम्पादन नहीं हो सकता। अत: यदि दिये हुये उदाहरणमें मॉस-भक्षक मामाहार द्वारा मृत पशुका वध करना पाप है. तो इस पापके भागी मारने वाला और पुनरूद्वार नहीं करता, बल्कि वह उसके द्वारा लालसावश मरने वाला दोनों ही कारण होने चाहिये।
अपने ही शरीरका पोपण करता है। नीलकशो-आपकी यह तर्कणा ठीक नहीं है। बाद्ध-नहीं, आपका कारण कार्य वाला तर्क दोषयदि इस तर्कणाको ठीक मान लिया जाय तो पापकी जिम्मे- पूर्ण है । यदि कारणके सदोष होने पे कार्यको भी सदोष वारी केवल मारने वाले और मरने वाले पर ही लाग न ।
माना जाय तो इसका यह परिणाम होगा कि पुत्र-द्वारा किये होगी, बल्कि उन अस्त्र-शस्त्रोपर भी लाग होगी, जो वध हुए अपराधका फल पिता पर भी लार होगा। करनेमें कारण हुए हैं, परन्तु किसीकी भी धारणा इस नीलकेशी-निस्संदेह अगर पिता अपने पुत्रके प्रकार नहीं है। वास्तवमें बात यह है कि पाप-पुण्यकी नैतिक दोषोंकी मालोचना और सुधार नहीं करता और वह