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वर्ष ८] समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
१४७ तथाऽपि वैय्यात्यमुपेत्य भक्त्या स्तोताऽस्मि ते शक्त्यनुरूपवाक्यः ।
इष्टे प्रमेयेऽपि यथास्वशक्ति किन्नोत्सहन्ते पुरुषाः क्रियाभिः ॥३॥
'(यद्यपि हम छमस्थजन आपके छोटेसे छोटे गुण का भी पूरा वर्णन करनेके लिये समर्थ नहीं है) तो भी में भक्रिके वश धृष्टता धारण करके शक्रिके अनुरूप वाक्योंको लिये हए भापका स्तोता बना हुँ-पापकी स्तुति करने में प्रवृत्त हा है। किसी वस्तके इष्ट होनेपर क्या परषार्थीजन अपनी शकिके अनुसार क्रियानी प्रयत्नों-द्वारा उसकी प्राप्तिके लिये उत्साहित एवं प्रवृत्त नहीं होते ?-होते ही हैं । तदनुसार ही मेरी यह प्रवृत्ति है-मुझे अापकी स्तुति इष्ट है।'
त्वं शुद्धि-शक्त्योरुदयस्य काष्ठा तुला-व्यतीता जिन ! शान्तिरूपाम् ।।
अवापिथ ब्रह्म-पथस्य नेता महानितीयत् प्रतिवनुमीशाः ॥४॥
'हे वीरजिन ! आप (अपनी साधनाद्वारा ) शुद्धि और शक्रिके उदय-उत्कर्षकी उस क.ष्टाको-परमावस्था अथवा चरमसीमाको प्राप्त हुए हैं जो उपमा-रहित हैं और शान्ति-सख-स्वरूप है-आपमें ज्ञानावरण और दर्शनारणरूप कममलके तयसे अनुपमेय निर्मल ज्ञान-दर्शनका तथा अन्तरायकर्मके अभावसे अनन्तवीर्यका आविर्भाव हुमा है, और यह सब श्रात्म-विकास मोहनीयकर्मके पूर्णत: विनाश-पूर्वक होनेसे उस विनाशसे उत्पन्न होनेवाले परम शानि.मय सुखको साथमें लिये हुए है। (इसीसे) श्राप ब्रह्मपथके-आत्मविकास-पद्धति अथवा मोक्ष-मार्गके नेता हे-अपने आदर्श एवं उपदेशादि-द्वारा दूसरोंको उस आत्मविकास के मार्गपर लगानेवाले हैं-और महान् हैपूज्य परमात्मा है-, इतना कहने अथवा दूसरोंको सिद्ध करके बतलाने के लिये हम समर्थ हैं।'
कालः कलिर्वा कलुषाऽऽशयो वा श्रोतुः प्रवक्कुर्वचनाऽनयो वा।
त्वच्छासनकाधिपतित्व-लक्ष्मी-प्रभुत्व-शक्तेरपवाद-हेतुः ॥ ५ ॥
"(इस तरह आपके महान होते हुए, हे वीरजिन ! ) श्रापके शासनमें—अनेकान्तात्मक मतमें-(निःश्रेयस और अभ्युदयरूप लक्ष्मीकी प्राप्तिका कारण होनेसे) एकाधिपतित्वरप-लक्ष्मीका-सभी अर्थ-क्रियार्थिजनोंके द्वारा अवश्य श्राश्रयणीयरूप सम्परिका-स्वामी होनेकी जो शक्रि है-भागमान्विता युक्रिके रूपमें सामर्थ्य है-उसके अपवादका-एकाधिपत्य प्राप्त न कर सकनेका-कारण (वर्तमानमें) एकतो कलिकाल है-जो कि साधारण बाहा कारण है, दूसरा प्रवक्राका वचनाऽनय है-श्राचार्यादि प्रवक्रवर्गका प्रायः अप्रशस्त-निरपेक्ष-नयके साथ वचनव्यवहार है अर्थात् सम्यकनय-विवक्षाको लिये हए उपदेशका न देना है-जो कि असाधारण बाह्य कारण है, और तीसरा श्रोताकाश्रावकादि श्रोतृवर्गका-कलुषित आशय है-दर्शनमोहसे प्रायः प्राकान्त चित्त है-जोकि अन्तरंग कारण है।'
दया दम-त्याग-समाधि-निष्ठं नय-प्रमाण-प्रकृताऽऽञ्जसार्थम् । ___ अधष्यमन्यैरखिलैःप्रवाजिन ! त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥६॥
'हे वीरजिन ! आपका मत-अनेकान्तात्मक शासन-दया (अहिंसा), दम (संयम), त्याग (परिह-त्यजन) और समाधि (प्रशस्तध्यान) की निष्ठा-तत्परताको लिये हुए है-पूर्णत: अथवा देशतः प्राणिहिंसासे निवृत्ति तथा परोपकारमें प्रवृत्तिरूप वह दयावत, जिसमें असत्यादिसे विरक्रिस्प सरप्रतादिका अन्तर्भाव (समावेश) है, मनोज्ञ और अमनोज्ञ इन्द्रिय-विषयों में राग-द्वेषकी निवृत्तिरूप संयम; बाह्य और प्राभ्यन्तर परिग्रहोंका स्वेच्छासे त्यजन अथवा दान; और धर्म तथा शुक्लध्यानका अनुष्टान; ये चारों उसके प्रधान लक्ष्य हैं। (माथ ही) नयों तथा प्रमाणोंके द्वारा (असम्भवढाधकविषय-स्वरूप) सम्यक वस्तुतत्त्वको बिल्कुल स्पष्ट (सुनिश्चित) करने वाला है और (अनेकान्तवादसे भिन्न) दूसरे सभी प्रवादोंसे अबाव्य है-दर्शनमोहोदयके वशीभूत हुए सर्वथा एकान्तवादियोंकद्वारा प्रकल्पित वादोंमेंसे कोई भी वाद (स्वभावसे मिथ्यावाद होनेके कारण) उसके (सम्यग्वादात्मक) विषयको बाधित अथवा दूषित करने के लिये समर्थ नहीं है-: (यही सब उसकी विशेषता है और इसी लिये वह) अद्वितीय है-अकेला ही सर्वाधिनायक होनेकी क्षमता रखता है।'